गजल कहना और सुनना किसे पसंद नहीं है। इसकी खास वजह है, उसकी लय और उसमें निहित अर्थ का स्फोट। यह विधा पूर्व-अरेबियन कविता से छठीं शताब्दी के कुछ पहले निकली। फारसी साहित्य में गजल का वर्चस्व दिखता है। वहीं से यह अरबी, तुर्की, पश्तो और बाद में उर्दू में आयी। इस विधा का अपना तकनीकी अनुशासन है, इसकी बहरें हैं, इसके मीटर हैं। इसमें पांच से 25 तक शेर हो सकते हैं। पहला शेर गजल की जमीन तैयार करता है। इसे मतला कहते हैं। मतले की दोनों पंक्तियों में काफिया और रदीफ एक जैसे होते हैं। उसके बाद का हर शेर उसी मीटर पर आगे बढ़ता है और उसकी दूसरी पंक्ति मतले के रदीफ को दुहराती है। अंतिम शेर को मकता कहते हैं, जिसमें शायर अपना परिचय भी छोड़ता है। ज्यादातर शायर इसके लिए तखल्लुस का प्रयोग करते हैं पर यह कोई जरूरी नहीं है। कुछ अपने नाम का ही कोई हिस्सा उपयोग में ले लेते हैं।
प्रारंभिक तौर पर गजल के मायने हैं अपनी प्रेमिका से बातचीत। यह ऐसी विधा है, जिसमें शायर प्यार, विछोह और उससे उपजे दर्द का वर्णन करता रहा है। ग़ज़ल को समझने के लिए सूफी मत को भी समझना पड़ेगा क्योंकि कई बड़े ग़ज़लगो सूफी संत हुए। वे एक ऐसी मुहब्बत की बात करते हैं, जिसे हासिल करना लगभग असंभव है लेकिन जिसे वह हासिल हो जाती है, वह जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। उसी की तलाश में वह दर्द से छटपटाता रहता है, पीड़ा से व्याकुल रहता है और अपनी इसी प्यास को, इसी तड़प को, अपने प्रियतम की खूबसूरती को गाता रहता है। इन्हीं सूफियों के जरिये ग़ज़ल दक्षिण एशिया तक पहुंची।
हालांकि अब गजल ने अपना चेहरा बदल लिया है। अब शायर केवल अपने दर्द की बात नहीं करता, अपनी प्यास की बात नहीं करता, उसे अपना समाज भी दिखता है, उसकी परेशानियां दिखती हैं, उसका दर्द दिखता है और उससे वह अलग नहीं हो पाता। जदीद शायरी के तत्व अब गजलों में भी आ गये हैं। इसीलिए गजलें हर किसी को अपनी बात कहती नजर आती हैं। यही उसकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण है।
यह भी कहना ठीक नहीं होगा कि गजल केवल उर्दू की धरोहर है। वह अब लगभग सभी भाषाओं में कही, सुनी और गायी जा रही है। हिंदी में बेहतरीन गजलें कहीं जा रही हैं। हिंदी का विशाल पाठक समुदाय होने के नाते ज्यादातर शायर चाहते हैं कि उनकी गजलें हिंदी देवनागरी में भी साया हों। जर्मन और अंग्रेजी में भी कई कवियों ने गजल के मीटर को इस्तेमाल करने की कोशिश की है। कश्मीरी अमेरिकी शायर आगा शाहिद अली ने रीयल गजल्स इन इंगलिश के नाम से अंग्रेजी की गजलों का संपादन भी किया है।
गजल में उसका हर शेर अलग-अलग अपने में पूर्ण होता है। पर यह कोई जरूरी नहीं कि इसी तरह गजल कही जाय। कुछ लोग ऐसी गजलें भी कहते हैं, जिनमें एक विचार आरंभ से अंत तक चलता है। ऐसी गजलों को मुसलसल गजल कहते हैं। काफिया और रदीफ का नियम भी कुछ लोग नहीं मानते। बहुत से शायर ऐसी गजलें कह रहे हैं, जिनमें रदीफ नहीं होता। इन्हें गैर-मुरद्दफ गजल कहते हैं।
तकनीक और कथ्य के स्तर पर गजलों में पिछले दो दशकों में भारी परिवर्तन आया है। इन तबदीलियों ने गजल को शायरी से मुहब्बत रखने वालों के सर-माथे चढ़ा दिया है। इस समय गीत विधा में जितने अनुशासन प्रचलन में हैं, गजल का अंदाज सबसे ज्यादा लुभाने वाला है। इसीलिए गजल के चाहने वालों की तादाद उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूरब से लेकर पश्चिम तक सबसे अधिक है। गेय कविता में गजल आगे भी सिरमौर बनी रहेगी, इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए।
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