रविवार, 2 मई 2010

हम डर कर क्यों जियें

अमेरिका, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और कनाडा को लगता है, हिंदुस्तान के दिल पर हमला होने ही वाला है। कभी भी, किसी भी क्षण। उन्होंने अपने नागरिकों को चेतावनियां जारी की हैं, दिल्ली मत जाना, अगर दिल्ली में हो तो अपने ठिकाने पर बने रहना, बाजारों में मत निकलना, भीड़-भाड़ वाली जगहों पर मत जाना। हर संदिग्ध वस्तु से सजग रहना। हमारी खुफिया एजेंसियों को कुछ पता नहीं है, इसीलिए हम डर गये, चारों ओर पुलिस का पहरा बिठा दिया गया, चेकिंग शुरू हो गयी। दिल्ली के बाजारों में भीड़ कम हो गयी, लोग चौकन्ने हो गये।

इस तरह डरने की क्या सचमुच जरूरत है? क्या हमें नहीं पता कि पाकिस्तान कभी चुप नहीं बैठता? जो किसी भी तरह की जवाबदेही लेने को तैयार न हो, जो हमेशा झूठ बोलकर अपने अपराध को छिपाने की कोशिश करता रहता हो, जो स्वयं भीषण आपदाओं से घिरे होने के बावजूद दूसरों के खिलाफ साजिशें रचने में खुशी महसूस करता हो, उससे आखिर उम्मीद ही क्या की जा सकती है। कई पश्चिमी देशों को पाकिस्तान से मेल भेजे गये हैं कि वे अपने खिलाड़ियों को कामनवेल्थ खेलों में न भेजें अन्यथा उन्हें नुकसान उठाना पड़ सकता है। पश्चिम के देश आतंकवादियों से हमेशा डरे रहते हैं। उनके डर का वाजिब कारण है। वे आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का ढोंग तो करते हैं लेकिन इस मामले में कार्रवाई के स्तर पर पाखंडपूर्ण नजरिया रखते हैं।

वे तालिबान से, अल-कायदा से लड़ रहे हैं क्योंकि उन्होंने बड़ी तबाहियां देखीं हैं। उन्हें अपनी बर्बादियों का नजारा तो हमेशा याद रहता है परंतु भारत ने जो झेला है या झेल रहा है, उससे उन्हें कुछ खास मतलब नहीं। इसीलिए तो जब भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने वाले जैश, लश्कर, जमात-उद-दावा की बात आती है तो वे खामोश हो जाते हैं। क्यों नहीं पाकिस्तान पर इस बात के लिए दबाव बनाया जाता है कि वह इन संगठनों से जुड़े बदमाशों पर भी उसी तरह कार्रवाई करे जैसे तालिबान के खिलाफ की जा रही है? यह दोगलापन जब तक बना रहेगा, आतंकवादी अपना काम करते रहेंगे।

भारत को यह बात बहुत साफ तरीके से समझ लेनी चाहिए कि आतंकवाद से उसे अकेले ही लड़ना पड़ेगा। ऐसे में जो लोग सार्वजनिक चेतावनियां जारी करके आम हिंदुस्तानी को डराने की कोशिश कर रहे हैं, उनसे भी कहा जाना चाहिए कि वे ऐसी सूचनाओं को भारत सरकार या खुफिया संगठनों से शेयर करें, चारों ओर हल्ला न मचाएं। अब बहुत डरने की जगह हमें आतंकवाद के साथ जीना सीख लेना चाहिए लेकिन इस बात की पूरी तैयारी भी रहनी चाहिए कि जो भी हमारी जमीन पर आंख गड़ाए, उसकी आंखें फिर देखने लायक न रहें, जो भी हमें नुकसान पहुंचाने की कोशिश करे, वह लौटकर जाने लायक न रहे, जो भी हमारे मुल्क के नागरिकों की जान लेने के इरादे से हमारी सीमा में घुसने की जुर्रत करे, वह हमारी संगीनों के पहरे को किसी भी सूरत में भेद न सके। इसके लिए जो भी करना जरूरी हो, करना चाहिए। कातिल के बाजुओं में कितना जोर है, यह देख लेने का वक्त आ गया है। उनकी मुश्कें कसनी पड़ेंगी, उनकी बाहें मरोड़नी पड़ेंगी। हम डर कर जियें, इसकी जगह दुश्मन को डराकर रखना ज्यादा मुनासिब होगा। यह तो लड़ाई है और लड़ाई में जीत होनी चाहिए, चाहे जैसे हो। शत्रु को धराशायी करने का कोई भी तरीका नाजायज नहीं होता।

2 टिप्‍पणियां:

  1. हम डरकर क्‍यूं जीएं .. बहुत सही प्रश्‍न है !!

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  2. सुभाष सर, नमस्कार। वाकई, यह कातिल के बाजुओं का जोर देखने का समय है। पड़ोसी मुल्क हमारे लिए ऐसा नासूर बनता जा रहा जो हर पल रिस रहा है। इसका निपटारा अभी नहीं किया गया तो हमें बहुत पछताना पड़ेगा। यह वक्त का तकाज़ा है कि हम कातिल की बाहें अपने गिरेबान तक पहुंचने से पहले मरोड़ दें। आपने बिलकुल सही लिखा। उम्मीद है आपकी लेखनी यूं ही चलती रहेगी। प्रतीक्षा में...

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