रविवार, 11 जुलाई 2010

हम गहरी नींद में

कितना अजीब है कि हर आदमी पैसे के लिए पगलाया घूम रहा है। कुछ भी कर गुज़रने को तत्पर, नीचे से नीचे गिरने को सन्नद्ध, गलीज से गलीज काम करने को कटिबद्ध। छोटे से दुकानदार से लेकर व्यवसायी, अफ़सर, नेता और वे भी जो त्याग का प्रवचन देकर पेट भरते हैं, जिन्होंने भगवान को पाने के लिए घर छोड़ दिया, जो कंचन, कामिनी और कीर्ति के त्रिमोह से बचने की सलाह देते फिर रहे हैं। सबको पैसा चाहिए। कितना चाहिए, किसी को पता नहीं। बस इतना पता है कि जितना मिल गया, उससे ज़्यादा चाहिए। इस खेल के बीच में ही जीवन के रंग-मंच से साँसों का पर्दा गिर जाय तो गिर जाय, इस मोहांधता में कारागार तक पहुंचने का रास्ता खुल जाय तो खुल जाय। कोई चिंता नहीं, मौत का क्या पता, पैसा आ रहा है, आने दो। कोई मिलावट करके अपनी तिजोरी भर रहा है तो कोई उत्कोच के नंग नाच में शामिल होकर, कोई दलाली से पैसे झटक रहा है तो कोई लंपटता, धूर्तता और पाखंड से।

अपने देश में तो ऐसा नहीं था। इसीलिए हमारा सम्मान था। हमारे साधुओं ने गाया, चाह गयी चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह, जिनको कछू न चाहिए, वे साहन के साह। बादशाहों का भी बादशाह वह है, जिसको किसी से कुछ नहीं चाहिए, जिसकी कुछ भी पाने की आकांक्षा नहीं है। जब कोई कुछ नहीं चाहने वाला होता है तो उसके पास जो कुछ भी आता है, वह दूसरों को दे देता है। हो सकता है किसी को उसकी ज़्यादा ज़रूरत हो, किसी के जीवन का सूत्र उससे संभल जाय, किसी की टूटती सांस उससे थम जाय। यह त्याग हमारे परम पुरुषार्थ का संकेत था। यह इस बात का भी संकेत था कि दूसरों के लिए जीना अपने लिए जीने से श्रेष्ठतर है। यह श्रेष्ठता अचानक मूर्खता में बदल गयी है। जिसके पास पैसा है, वही सम्मान का पात्र है, वही महान है, आदरणीय है। व्यक्तिगत जीवन में वह चाहे कितना ही भ्रष्ट, कदाचारी और बेईमान क्यों न हो। सभी गुण धन में निवास करते हैं, यह कहावत अब एक विकट सचाई की तरह सबके सामने है।

जिनके पास धन है, लक्ष्मी है, माना जाने लगा है कि उनके पास सरस्वती भी होंगी ही। वही विद्वत्जनों की गोष्ठियों का शुभारंभ करते हैं, वही इस युग के महान तपसपुत्रों के प्रवचन का प्रारंभ कराते हैं, वही विद्यालयों, विश्वविद्यालयों के कार्यक्रमों के प्रमुख अतिथि बनकर सुभाषित वचन कहते हैं। और आश्चर्य ज्ञान के महारथी, अपने विषय के पंडितों की जमात उनके बकवाद पर हर्षोन्मत्त हो तालियाँ बजाती है। पैसा हमारे जीवन को निगलता जा रहा है, हम लालच के भंवर में उघ-चुघ कर रहे हैं, हमारा स्वाभिमान तिरोहित होता जा रहा है और हम हैं कि मुंगेरीलाल बने अपनी सपन-सजीली नींद में मस्त हैं। हमने न जागने की ठान ली है। हम धन-संपदा की इस मदिरा के नशे में और गहरी, बेहोशी भरी नींद में जाने को तैयार हैं।

पैसा है तो सारा सुख है, सारी सुविधाएँ हैं, पैसा है तो सौंदर्य है, मद भरा चषक है, पैसा है तो वैभव के अथाह और नंग अंतरंग में उतरने की सामर्थ्य है, पैसा है तो किसी को भी ख़रीद लेने की ताक़त है। इसलिए पैसा आना चाहिए। इसी पैसे ने पहले पश्चिम को बेहोश किया और अब जब वे थोड़े जगे हैं तो सब कुछ लुट चुका है, बैंकें ख़ाली हो गयी हैं, दिवालिया हो गयी हैं, मंदी की घनी और डरावनी छाया बिगड़ैल भूत की तरह सामने खड़ी है। अब वही हमें बेहोशी में डालकर हमारा सब कुछ लूटना चाहते हैं और हम समझ नहीं पा रहे हैं। हम लुट जाने को तैयार हैं, मिट जाने को तैयार हैं।

चाहे बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हों या दूरदर्शन या मीडिया, सभी अनजाने या जानबूझकर पश्चिमी लुटेरों की ओर से लोगों पर लालच के जाल फेंक रहे हैं। लाखों लोगों ने शेयरों में पैसा लगाया और फिर इंतजार करते रहे कि जो लगा है, उतना ही मिल जाय, तड़पते रहे कि कहीं डूब न जाय। और भी खेल हैं। किसी सुंदरी के साथ हाथ मिलाने की चाह हो या उसके साथ भोजन करने की या उससे स्वयंवर रचाने की, कौन फेंक रहा है ये लुभावने पाशे? कौन चल रहा है कुछ सवालों के जवाब के बदले करोड़पति बना देने का दाँव? पहचान नहीं पाये तो आप के भीतर जो लालच का समुद्र जगाया जा रहा है, वही एक दिन आप को निगल जायेगा। बचने का एक मौक़ा तो वक़्त सबको देता है, हमारे पास भी है, पर हम उसका लाभ उठा सकें तब तो।

2 टिप्‍पणियां:

  1. हमारा समाज आज इन्सान कम दलालों से भरता जा रहा है और इसकी वजह है उच्च संबैधानिक पदों पर बैठे भ्रष्ट और कुकर्मी लोग जो देश और समाज की सेवा करने के लिए मोटी तनख्वाह लेकर बिदेशी दलालों व देश में बैठे उनके एजेंटों के लिए दलाली का काम कर रहें हैं और अच्छे,सच्चे,देशभक्त व इमानदार लोगों को सुरक्षा देने की वजाय असुरक्षित व भयभीत करने का काम कर रहें हैं | निश्चय की ऐसी अवस्था से लड़ने के लिए देश भर के जागरूक लोगों के एकजुटता की जरूरत है जिसके लिए हम सभी ब्लोगरों को प्रयास करना चाहिए | आपके इस जागरूकता भरे लेख के लिए आपका आभार |

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  2. कितना सच लिख दिया आपने...दिल करता है ये आर्टिकल खतम न हो और मैं पढ़ती ही जाऊ.

    हम कलम के सिपाही इतना तो कर ही सकते हैं की शब्दों की तलवार चला सकते हैं शायेद इसी से कहीं कोई इन्कलाब आ जाये.

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