रविवार, 18 जुलाई 2010

बरात आने को है, अभी झाड़ू भी नहीं लगा

वीरेन्द्र सेंगर के कलम से
पूरे उत्तर भारत में अभी पहली करारी बरसात का इंतजार है। लेकिन, दिल्ली सरकार के आला अधिकारी बूंदाबांदी को लेकर ही मौसम को कोसने लगे हैं। बरसात का मौसम उनके लिए अपनी काहिली छिपाने का एक हथियार भी बनता जा रहा है। कॉमनवेल्थ गेम्स की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। खेलों से जुड़े तमाम प्रोजेक्ट अधूरे पड़े हैं। ऐसे में सरकार की सांसें फूलने लगी हैं। सरकार यही कहकर अपनी पीठ ठोक रही है कि कुछ भी हो गेम्स तो होने ही हैं जबकि विपक्ष के नेता विजय कुमार मल्होत्रा कहते हैं कि आधी-अधूरी तैयारियों के चलते देश की प्रतिष्ठा दांव पर लग गई है। ऐसे में दिल्ली सरकार को गैर जिम्मेदारी पर एक ‘गोल्ड मेडल’ मिलना जरूर तय है।  मुख्यमंत्री शीला दीक्षित विपक्ष के इस तरह के कटाक्षों से आजिज आ गई हैं। उनका कहना है कि गेम्स से जुडे निर्माण कार्यों में सबसे बड़ी दिक्कत यह रही कि इसमें कई एजेंसियों की भूमिका है। इन सभी के बीच समय से समन्वय स्थापित नहीं हो पाया। 

शीला दीक्षित ने अब अधूरे पड़े कामों के लिए 31 अगस्त की नई डेड लाइन तय की है। दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव राकेश मेहता ने स्वीकार कर लिया है कि राजधानी की साज-सज्जा के कुछ प्रोजेक्ट गेम्स तक पूरे नहीं हो पाएंगे। आला अधिकारियों ने अपनी लापरवाही छिपाने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाने शुरू कर दिये हैं। सरकार की तरफ से कहा जा रहा है कि गेम्स निर्माण कार्य पूरा करने में मानसून बाधा बन रहा है। भाजपा नेता हर्षवर्धन का कहना है कि गेम्स की तैयारियों को लेकर कई ऐसे प्रमुख प्रोजेक्ट हैं, जिनमें अभी तक आधे से ज्यादा काम बाकी हैं। उनका सवाल है कि भला किस जादू की छड़ी से एक महीने के अंदर सब काम पूरे हो जाएंगे।  इस मसले पर कांग्रेस और भाजपा के बीच राजनीति का गेम भी ज्यादा तेज हो गया है। विपक्ष के नेता विजय कुमार मल्होत्रा कहते हैं कि मुख्यमंत्री अपनी शाबाशी में झूठ पर झूठ बोले जा रही हैं। जबकि, हकीकत यह है कि पूरी राजधानी खुदी हुई पड़ी है। कनॉट प्लेस में चल रहा सौंदर्यीकरण का काम पूरा नहीं हो पाया है। जगह-जगह ‘मलवे के पहाड़’ लगे हैं।
खेल मंत्री एमएस गिल कहते हैं कि केंद्र ने तो समय से पूरा बजट दे दिया था, लेकिन ढंग की निगरानी न होने के कारण काम में काफी देरी हुई है। वे इस बात से जरूर संतुष्ट हैं कि अक्टूबर में कॉमनवेल्थ गेम्स तो हो ही जाएंगे। जबकि पहले संशय किया जा रहा था कि ये गेम्स हो पाएंगे या नहीं? वे हंसोड़ लहजे में कहते हैं कि यहां की मानसिकता तो वो है, जहां बारात आने पर झाड़ू लगाई जाती है लेकिन किसी न किसी तरह शुभ काम संपन्न ही हो जाता है। देख लीजिएगा, खींचतान कर गेम्स से जुड़े सभी काम सितंबर तक पूरे ही हो जाएंगे। उन्हें तो भरोसा है कि दिल्ली के गेम्स शानदार यादगार बनेंगे।

3 टिप्‍पणियां:

  1. दूसरे देश खेल करवाते हैं कि चलो स्पोंसरशिप से मोटी कमाई होगी. हमारे कलामाडी बाउजी BCCI से १०० करोड़ के लिए चिरोरियां करते घूम रहे हैं. मुझे तो अब भी आशंका है कि सुरक्षा या तैयारियों के अभाव में कुछ खेल ऑस्ट्रेलिया में ही करवाने पड़ सकते हैं.

    जवाब देंहटाएं
  2. खुद की तुलना तो हम हाल में ओलम्पिक खेल का आयोजन करने वाले देश चीन से करते है लेकिन अब पता चल जायेगा कि हम तो असल में दक्षिण अफ्रीका से भी गए गुजरे है (जिसने इतने शान से विश्व कप फुटबाल का आयोजन कर लिया).

    जवाब देंहटाएं