शनिवार, 31 जुलाई 2010

एक बात जो समझनी है

जीवन एक कविता की तरह है। उतना ही सुंदर, उतना ही सुरुचिपूर्ण, उतना ही सुष्ठु, उतना ही मधुर। जिस तरह कविता कवि की रचना होती है और वह उसे भावों, शब्दों, अलंकारों से सजा कर प्रस्तुत करता है, उसी तरह जीवन को भी प्रकृति सुंदर से सुंदर बनाकर प्रस्तुत करती है। जिसे केवल जीवन चाहिए, वह इसे सुंदर बनाये रख सकता है, जिसे जीवन के बदले और भी चीजें चाहिए, उसे जीवन के सौदर्य से वंचित होना पड़ता है। रचना अपने आप में ही फल है। किसी कवि ने एक सुंदर कविता रची, यह उसका पारिश्रमिक है। क्यों नहीं सभी लोग कविता रच लेते हैं, किसी के भी शब्द काव्य में बदल जायं, ऐसा कहां होता है? जिसे काव्य सर्जन का वरदान मिला हुआ हो, जिसके कंठ पर सरस्वती बसती हों, उसी के शब्द काव्य में बदलते हैं, वही रचना कर पाता है। इस तरह उपजी कविता का पारिश्रमिक क्या मांगना?

कवि होना अपने आप में महत्तम नहीं है क्या? ऐसा ही जीवन के बारे में भी समझना चाहिए। जो इसे रचता है, वह कभी इससे कुछ नहीं चाहता। पर जिसे यह मिला है, वह रास्ता भटक जाता है। अपनी रचना से रचनाकार का अटूट रिश्ता होता है, वह इससे अलग हो ही नहीं सकता। जीवन का रचनाकार भी जीवन से अलग नहीं रह सकता, अलग रहता भी नहीं, बिल्कुल पास रहता है, जीवन के भीतर ही समाया हुआ रहता है। जिसके पास जीवन है, उसे समझ में आये या नहीं। जो उसकी उपस्थिति समझ लेते हैं, वे भाग्यशाली होते हैं, वे उसकी महानता को भी जान लेते हैं, वे स्वयं में ही उसे महसूस कर पाते हैं। उसके होने का अहसास इतना जीवंत, इतना मुग्धकारी होता है कि केवल उसकी उपस्थिति के अलावा जीवन धारण करने वाले को कुछ और नहीं चाहिए होता है।

पर जो इस सचाई को नहीं समझ पाते हैं, वे जीवन को अपना अधिकार मान लेते हैं और फिर इससे सब कुछ पा लेना चाहते हैं। वे जीवन के सौंदर्य को बाहर ढूढ़ने लगते हैं। बाहर की दुनिया तो बहुत आकर्षक है, बड़ी वैभवशालिनी है, अत्यंत सम्मोहित करने वाली है। उसके सम्मोहक उपकरणों का अंश मात्र भी किसी एक व्यक्ति को हासिल नहीं हो पाता है। इसीलिए पाने के सिलसिले को कोई अंत होता ही नहीं। इस अंधी दौड़ में आदमी भागता जाता है, भागता जाता है, सारा आसमान मुट्ठी में भर लेना चाहता है। वह समझ ही नहीं पाता कि इस तरह उसे जो मिला हुआ था, वह भी उसके हाथ से निकलता जाता है। उसका विलक्षण सौंदर्य, उसकी अद्भुत सामर्थ्य धीरे-धीरे खोती चली जाती है और एक दिन उसे लगता है कि उसने तो कुछ पाया ही नहीं, जो पाया था, वह भी व्यर्थ चला गया। पर जब तक यह समझ आती है, वापसी के सारे रास्ते बंद हो चुके होते हैं, लौटना संभव नहीं रह जाता है।

एक साधु की कुटिया में आग लग गयी, सब कुछ जलकर भस्म हो गया। परंतु साधु सुरक्षित बच गया। वह उतना ही प्रसन्न था, जितना पहले कुटिया के रहने पर था। उसे देखकर लोगों को आश्चर्य हो रहा था। एक आदमी ने आखिर पूछ ही लिया, महाराज आप को तो इस आग से बहुत क्षति हो गयी, बड़ा दुख हो रहा होगा। साधु मुस्कराया और बोला, नहीं मित्र, दुख किस बात का। कुछ चीजें प्रकृति से मुझे मिली थीं, अब उसने वापस ले लीं, इसमें दुख की क्या बात। मेरा तो कुछ था नहीं, जिसका था, उसने ले लिया। मुझे तो खुशी है कि उसने यह सुंदर जीवन मुझसे वापस नहीं लिया। यह जीवन भी तो उसी का दिया हुआ है, वह चाहती तो इसे भी ले सकती थी, पर उसने ऐसा नहीं किया। उसने मेरे ऊपर यह जो कृपा की, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूं। साधु की यह प्रसन्नता बहुत सहज थी पर कितने लोग यह समझ पाते हैं कि कुछ भी उनका नहीं हैं, सब प्रकृति का है और वह एक दिन सब वापस ले सकती है। इतना ही समझ में आ जाय तो जीवन सुधर जाय, सुंदर हो जाय।

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपके एक एक शब्‍द, प्रत्‍येक भाव से सहमत हूं सुभाष भाई। मित्र और भाई में कौन श्रेष्‍ठ है, समझ नहीं पाता हूं। पर आपमें इन दोनों के मेल का अपनापन पाता हूं। आप जो भी रचते हैं, सब भाव विचार अपने ही लगते हैं। यह समन्‍वयन क्‍या है, आप दर्शन के विज्ञ हैं, आप सब जानते होंगे। मैं तो बस इतना ही जानता हूं कि जिससे मन मिल गया, उससे विचार भी अवश्‍य मिलेंगे। ऐसा ही महसूस कर रहा हूं। यह अहसास, यह नेक भाव, मन में सबके समा जाए - इसी के लिए प्रयासरत हूं।

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  2. यह पोस्‍ट तो आपको साखी पर लगानी चाहिए थी। कोई बात नहीं। एक बात तो आपने पक्‍की कही कि हर किसी के शब्‍द तो काव्‍य नहीं बनते। आपकी साधुकथा से मुझे एकलव्‍य के अपने एक सहयोगी शफीक मियां की याद आ गई। कोई चीज चोरी हो जाने या खो जाने पर वे कहते हैं अरे मियां कोई तकदीर थोड़े ही ले गया है। वह है तो दुबारा मिल जाएगी। यहां तकदीर की जगह जीवन की बात हो रही है।

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  3. बहुत सुन्दर निबंधात्मक पोस्ट -कविता से जीवन की उपमा बहुत सार्थक ,सटीक लगी!
    किन्तु कुदरत भी खराब रचनाएं निर्मित करती है ,कभी प्रयोग परीक्षण के लिए तो कभी विद्रूप परिहास के लिए -
    मनुष्य तो सायास कुरूपता को नहीं गढ़ता -मगर प्रक्रति कुरूपताएं भी गढ़ती जाती है और कभी भी अपनी सर्वांग सुन्दर रचना सृजित नहीं करती -उसे भी खुद को विस्थापित होने का खतरा सालता रहता है अपनी हीकृति से !

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  4. वाह सर, शानदार। बल्कि बहुत शानदार। मैनें तो पूरी पोस्ट दो बार पढ़ी। इसलिए नहीं कि समझ नहीं आई इसलिए कि और ज्यादा अच्छे से समझना चाहता था। बहुत शानदार। क्या लिखूं, समझ नहीं पा रहा हूं। दरअसल आपसे कुछ इसी तरह के लिखने की उम्मीद लगाए बैठा था, पता नहीं कब से। आज पूरी हो ही गई। एक बात और कहना चाहता हूं आप राजनीति पर मत लिखा करिए वह विभाग सेंगर साहब संभाल रहे हैं। आप इसी तरह जानकारीपरक पोस्ट लिखा करें ताकि युवाओं का मार्गदर्शन हो सके। बेहद शानदार पोस्ट, बहुत दिन बाद। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

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  5. अविनाश जी मुझे तो आप को प्रिय मित्र कहने की जगह प्रिय भाई कहने में ज्यादा सुख मिलता है. पता नहीं क्यों पर शुरुआत ही यहीं से हुई. मैने कभी एक कविता में लिखा था कि अलग-अलग जगहों पर एक दूसरे को जाने बिना बहुत से लोग एक ही युद्ध में शरीक हैं, पर कभी-कभी प्रकृति उन्हें मिला देती है. मैं और अविनाश ऐसे ही दो लोग हैं जो एक ही तरह की लडाई अलग-अलग लड रहे थे, पर अब वे साथ हैं. ऐसे और लोग भी होंगे, जो लड तो रहे हैं मगर एक-दूसरे को नहीं जानते हैं. हमें उन सबको एकजुट करना है. वे भी हमारे भाई ही होंगे. आप की मेरे प्रति यह आत्मीयता सहज है. मैं यही बात कई और लोगों के लिये कह सकता हूं. समय आने पर उनसे भी आप मिल पायेंगे.

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  6. यह समझना इतना आसान होता तो आज इतनी भागमभाग न होती. सुंदर विचार.

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  7. कविता के बारे में सूक्ष्म विश्लेषण पढ़ा. वास्तव में कविता पूर्णता का प्रतीक है. लेकिन बदलते परिवेश में सच्चे कवि और कविता कहाँ मिलती है. अगर कवि अपने काव्य को अपने जीवन में आत्मसात नहीं कर पाता तो उसे कवि कहलाने का कोई अधिकार नहीं है. कविता नदी का निर्मल जल है. कविता में मानव प्रेम की मधुर बांसुरी की धुन निकलती है. वह राग और द्वेष से परे है. सच्चा कवि वस्तुत कोई वीतरागी ही हो सकता है. जिसपर न तो अपनी कविता की प्रशंसा का प्रभाव पड़ता है और न ही उसकी आलोचना का. काश हम कविता लिखने वाले सच्चे कवि हो पाते. जब कविता साधना से रोटी रोजी में बदल जाती है तो वह अपना नैसर्गिकता खो देती है. इस सन्दर्भ में मैंने कभी लिखा था.
    हिमालय की रंगत तो गन्दा न करना
    समन्दर की लहरों को मंदा न करना
    याद रखना सूर तुलसी के बेटो
    कलम की स्याही से धंधा न करना

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  8. बहुत आसान सी और सरल सी बात है भाई ! लेकिन यह ठीक उसी प्रकार का मामला है जैसे " पानी पर पानी से पानी लिखना " .....

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  9. कविता पर इतने सुलझे हुए विचार केवल किसी सिद्धहस्त कवि के नहीं हो सकते, इतनी सक्षम अभिव्यक्ति के लिए तो उससे पहले एक सहृदय और संवेदनशील इन्सान होना आवश्यक है. आपकी लेखनी ने इस आलेख के माध्यम से सहृदयता, संवेदनशीलता और कवित्व की एक सार्थक व्याख्या की है. कोई गैर होता तो उसके लिए बधाई और आभार लिखता. आपके लिए तो यही कि 'तुमको हमारी उमर लग जाय.', मेरा बस चले तो आपको अमृत पिला दूँ.

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