गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

भूत, जो है ही नहीं (1)

ठंड जब बढ़ने लगती थी तो गांव में घर-घर अलाव जलते थे। गांव के लोग उसे कौड़ा कहते थे। घर का सारा कूड़ा दरवाजे से थोड़ा दूर इकट्ठा कर दिया जाता और उस पर अरहर की सूखी डंठलें तोड़कर डाल दी जातीं। उसे जला दिया जाता। किनारे-किनारे गोलाई में लोग बैठ जाते। घंटों गांव भर की तमाम बातें चलती रहतीं। बीच-बीच में भीतर से चाय बनकर आती। बाहर भी गरम और भीतर भी गरम। एक तरह से ठंड के मौसम की चौपाल जम जाती। दिन भर की नयी खबरें वहां मिल जातीं। अक्सर मजेदार बातें सुनने को मिलतीं। छोटू और सीताराम की बड़ी पूछ रहती। वे गांव के खबरची थे। चाहे रमेसरा की नयी-नवेली दुल्हनिया से खटपट हो या लड़की छेड़ने के लिए रजिंदर की ठुकाई, चाहे परधानजी के बेटे का चमरौटी की छोरी से इश्क हो या रधिकवा की चोरी-छिपे रंगरेली, सब कुछ वहां एक घंटे की बैठक में पता चल जाता। जिस दिन दोनों में से एक भी खबरची नहीं होता, अलाव जल्दी बुझ जाता। जिस दिन दोनों होते, बैठकबाजी आधी रात तक चलती रहती। गुल्लू दस-ग्यारह साल का था, मगर उसे शाम का बेसब्री से इंतजार रहता। जल्दी से खाना खाकर वह लोगों के जुटने की प्रतीक्षा करता। ऐसी कहानियों में उसे बहुत मजा आता था। वह इतना बड़ा नहीं हुआ था कि बीच में बोले, इसलिए चुपचाप सुनता रहता।
ऐसी ही एक रात सीताराम ने भूतों की बात छेड़ दी। पड़ोस में ही छेदी के साथ अनहोनी घट गयी थी। उसने रात में सपना देखा कि उसकी पड़िया ने उसके दांये हाथ की बीच वाली ऊंगली के दो पोर चबा लिये हैं। जब वह सुबह सोकर उठा तो खाट के पास बहुत सारा खून जमा पड़ा था। उसी में उसकी कटी हुई ऊंगली भी पड़ी थी। वह बहुत डर गया। सारे गांव में हल्ला मच गया। लोग उसको देखने के लिए उसके घर पर जमा हो गये। कोई कहता, खदेरन को बुलाओ, यह जरूर किसी भूत-प्रेत का काम है। उन जैसा ओझा इस अरियात-करियात में कोई मिलेगा नहीं। वे डंडा मार-मार जिन्न को भगा देंगे या बोतल में बंद करके भैरव बाबा के यहां छोड़ आयेंगे। कोई कहता, तुरंत डाक्टर के पास ले चलो। दवा-दारू कराओ। तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की बातें। छेदी के घर वाले परेशान थे, क्या करें क्या न करें। किसी ने खबर कर दी, खदेरन आ भी गये। आते ही उन्होंने भीड़ को डपटा। लोग पीछे हट गये। खदेरन पचरा गाने लगे। कहते हैं कि ओझा जब पचरा गाता है तो आस-पास के सभी भूत इकट्ठे हो जाते हैं और उनसे पूछ-ताछ करके असली अपराधी भूत को पकड़ लिया जाता है। पचरा जारी था लेकिन देर हो चुकी थी। सपने के भूत ने छेदी को बुरी तरह दबोच रखा था। दोपहर ढलते-ढलते उसका शरीर गरम होना शुरू हो गया और थोड़ी ही देर में उसका माथा जलने लगा। उसकी घरवाली अंगोछा भिगो-भिगो कर उसका शरीर पोंछती रही पर सब बेकार। शायद उसका बहुत सारा खून बह गया था। शाम होने से पहले ही उसका देह ठंडा पड़ गया। खदेरन ने पचरा बंद कर दिया और छेदी के घर में से रोने-पीटने की आवाजें आने लगीं।

सीताराम बोले, छेदी के साथ बहुत बुरा हुआ। उसे हमने कई बार मना किया कि राउत बाबा के साथ गाली गुप्ता न किया करे पर वह मानता ही नहीं था। कहता था, भूत-प्रेत सब बेकार की बातें हैं। कभी-कभी तो वह उस बरगद के नीचे मूत देता था, जिस पर राउत बाबा रहते हैं। वैसे तो वे किसी का बुरा नहीं करते, लेकिन उनके चेलों-पट्ठों को छेदी का यह कारनामा अच्छा नहीं लगता रहा होगा। बाबा के साथ पूरे सौ भूतों का डेरा उस बरगद पर है। उनमें दो बहुत बदमाश हैं। कनवा और रतना। सबको मालूम है, मजे लेने के लिए कनवा कई बार झौहरिया की नौकी बीवी पर चढ़ चुका है। जब भी वह गलती से उस बरगद के पास से गुजर जाती है,घर पहुंचते ही अभुआने लगती है। झौहरिया उसका झोंटा पकड़कर उठा लेता है, जमीन पर दे मारता है। झाड़ू से उसकी जमकर मरम्मत करता है पर कनवा बहुत जिद्दी है। वह जितना भी पिटे, कम से कम एक रात से पहले उसे कतई नहीं छोड़ता है। जब झौहरिया राउत बाबा को बकरा और दारू चढ़ाने की मन्नत मानता है, तब जाकर उसकी बीवी को कनवा से मुक्ति मिलती है।

रतना इतना बदमिजाज तो नहीं है पर वह दारू का शौकीन है। बाप-दादों से गांव में यह परंपरा है कि अगर घर में दारू पियो तो पहले थोड़ी सी रतना के लिए जरूर निकाल दो। अभी पिछली ही साल की तो बात है। ठाकुर को कहीं से विदेशी बोतल मिल गयी थी। घर में दो दोस्तों के साथ बैठ गया। एक ने कहा भी कि रतना को चढ़ा ले फिर पीते हैं लेकिन शहर में पढ़ने जो चला गया, किसी की सुनता ही नहीं। रस्म-रिवाज भी नहीं मानता। दोस्त से बोला, कौन रतना, झांटू कहीं का, क्या कर लेगा। पुरवे में पैग बनाया और गटक गया। इधर वह पेट में गयी, उधर सीने में कुछ चुभने लगा। माथा पकड़कर बैठ गया। पिताजी के कमरे में अर्जुनारिष्ट रखी थी। उन्हें दिल की बीमारी थी। सोचा शायद पैतृक असर हो। एक कटोरी पी गया। पर वह तो रतना था। जो गलती करता, उसे छोड़ता नहीं। पास से हकीम बुलाये गये, पर यह क्या, ठाकुर की आवाज बदल गयी। उसके भीतर से कोई और बोलने लगा। फिर वह कमरे से निकल कर भागने लगा। अपने बाल नोचता, दांत कटकटाता, पक्की दीवार से सर टकराता। घरवालों की समझ में नहीं आ रहा था, क्या करें। बभनौली से बड़के सैयद बाबा को बुलाया गया। उन्होंने ठाकुर को पकड़वाकर खंभे से बंधवा दिया। पंडोहा साफ करने वाला झाड़ूनुमा लकड़ा मंगाया गया। जब ठाकुर पर दनादन दस पड़े तो वह बोल उठा, क्या करूं, इस छोकरे ने बिना मुझे दिये दारू जूठी कर दी। वहां जमा हुए लोग समझ गये, यह तो रतना है। सैयद बाबा ने इस वादे पर उसे वापस भेजा कि ठाकुर नयी बोतल ले आयेगा और पूरी की पूरी तुम्हें दे देगा। तब जाकर कहीं बबुआ का पिंड छूटा।

छोटू बहुत देर से चुप था। सीताराम को टोकते हुए उसने बात आगे बढ़ायी। देखो, भइए! भूत-प्रेत भी आदमियों की ही तरह होते हैं। कुछ नेक, भले तो कुछ बदमगज, बदमाश। प्रेत योनि में सबको कुछ दिन रुकना पड़ता है। जैसे जिसके करम होते हैं, उसी के हिसाब से उसे भुक्ति-मुक्ति मिलती है। आदमी की जो इच्छाएं पूरी नहीं होती हैं, वह इस योनि में आकर पूरी करने की कोशिश करता है। कुछ भूत तो जानबूझकर उत्पात करते हैं ताकि किसी महान आत्मा से पाला पड़ जाये और इस योनि से मुक्ति मिले। रामजी चाचा के परबाबा पिंगल राय शिवकुटी पर सैकड़ों बरस से प्रेत योनि में पड़े हैं। कुछ बुरा किया होगा। पर अब तो उन्हें मानुस जोनि के दौरान अपने किये पर पछतावा है। अब वे केवल भलाई में लगे रहते हैं। अपने पोतों, परपोतों का पूरा खयाल रखते हैं। किसकी मजाल जो रामजी चाचा का कुछ बिगाड़ दे। ऊ लोटन ससुरा, बाबू साहब के खेत से खड़ा गेहूं काटकर ले जा रहा था। गट्ठर बांध चुका था। सिर पर रखने की तैयारी कर रहा था कि रामजी चाचा पहुंच गये। सपने में पिंगल बाबा ने रामजी को एक करारा चांटा मारा। उनकी नींद खुल गयी। उन्होंने देखा, बाबा खड़े हैं और कह रहे हैं, अरे! बेटा खेत तो देख आ। लोटन तुम्हारी फसल काट रहा है। रामजी ने घड़ी देखी तो रात के दो बज रहे थे। मुंह पर पानी मारकर वे खेत की ओर चल पड़े। बाबा न जगाते तो लोटन उन्हें दस-बीस किलो अनाज का झटका दे जाता।

'और गया बाबा को क्या हुआ था?' गुल्लू को अचानक कुछ याद आया। आये दिन गांव में भूत-प्रेतों की चर्चा से इन बातों में उसकी दिलचस्पी भी बढ़ने लगी थी। वह शाम को जब कभी राउत बाबा वाले बरगद के पास से गुजरता, एक फर्लांग पहले से ही सरपट दौड़ लगा देता और बरगद से उतना ही आगे जाकर रुकता। वह भीतर ही भीतर डरने लगा था। एक दिन उसने पिताजी से पूछा, क्या आप ने कभी भूत देखा है? पिताजी ने कहा, एक बार। उस दिन, मुझे रात में शौच जाने की जरूरत लगी। मैंने लोटे में पानी भरा और बगीचे की ओर निकल गया। पूरी अंजोरिया उगी हुई थी। पसेरिहवा आम के पेड़ से थोड़ा आगे जाकर बैठ गया। थोड़ी देर बाद नजर उत्तर की ओर गयी, तो मेरे नये वाले अमोले के बिलकुल पास एक औरत खड़ी थी। सफेद साड़ी पहने थी। बाल भी एकदम सफेद। मैं निवृत्त होकर उठा तो उसके पास से निकला। आसमान में चांद को देखकर लगा कि अभी रात का तीसरा पहर होगा। इतनी रात को एक औरत को बगीचे में देखकर थोड़ी हैरत हुई। मैंने एक नजर उस पर दौड़ाई। उसका चेहरा आड़ में था, इसलिए पहचान में नहीं आ रही थी। जब मेरी नजर पांव पर गयी तो मेरे रोंगटे खड़े हो गये। उसके पांव पीछे की ओर मुड़े हुए थे। जरूर वह चुड़ैल रही होगी।

गुल्लू को पिताजी ने एक बार गया बाबा की भी कहानी बतायी थी। बड़ी मजेदार थी। बाबा अपने जमाने के पहलवान थे। वे कुश के झुरमुट को भूत समझकर उससे भिड़ गये थे। गुल्लू सीताराम के मुंह से गया बाबा की कहानी सुनना चाह रहा था, 'हां, तो गया बाबा की बात बताओ न सीता चाचा।' सीताराम बोले, बबुआ! कहानी न कहो, सौ आने सच बात है। गया बाबा अक्सर रात-बिरात खेत-खलिहान देखने निकल जाते थे। एक ऐसी ही रात जब वे अपने खेत पर पहुंचने वाले थे, उन्हें लगा, कोई छाया उनकी ओर लपक रही है। चांदनी रात थी। पूनम रही होगी। दूर तक साफ दिख रहा था। खेत की मेंड़ पर कुश के झुरमुट थे। हल्की-हल्की हवा बह रही थी। चांद की रौशनी में कुश लहरा रहे थे, इसलिए उसकी छाया भी लहरा रही थी। गया बाबा थोड़ी दूर से उसे चुनौती देने लगे, आ जाने दे पास, फिर देखता हूं। वे छाया की दिशा में बढ़ते गये और कुश के झुरमुट में घुस गये। कुश की नुकीली नोंक उन्हें चुभने लगी तो उन्हें लगा सचमुच कोई उनसे लड़ रहा है। वे देर तक कुश से उलझते रहे और आखिरकार पूरा झुरमुट ही उखाड़ डाला। पर इस झूठ-मूठ की लड़ाई में वे बहुत घायल हो गये। लथ-पथ होकर वहीं पसर गये। सवेरे जब किसी ने उन्हें वहां लहूलुहान देखा तो उठाकर घर लाये गये। बीमार पड़े और स्वर्गवासी हो गये।
.........जारी दूसरा भाग भी पढ़ें

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें