बुधवार, 21 अप्रैल 2010

वे जंगली थे, जंगली ही रह गये

मरघट पे भीड़ है या मजारों पे भीड़ है
अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निजाम और

दुष्यंत का यह एक शेर आज के हालात बखूबी बयान कर रहा है। हिंदुस्तान में आदमी की जान बहुत सस्ती है। जो मुजरिम हैं, दहशतगर्द हैं, उन्हें किसी के प्राण लेने में तनिक संकोच नहीं होता। मामूली फायदे के लिए या लोगों में दहशत फैलाने के लिए वे कुछ भी कर गुजरते हैं। इतनी लाकानूनियत है कि लूट, हत्या और बलात्कार के बाद हमारी पुलिस को जिस तेजी से काम करना चाहिए, नहीं कर पाती है। कई बार तो उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता और मजबूरन उसे मामला बंद कर देना पड़ता है। बहुत दबाव होने पर कभी-कभी वह निर्दोष आदमियों को उस अपराध में दबोच लेती है, जो उन्होंने किया ही नहीं। कई बार वाहवाही लूटने के लिए वह किसी को भी ललकार कर मुठभेड़ कर डालती है। बाद में पता चलता है कि जो मर गया, बेचारा अपने मित्र की पार्टी में शरीक होकर घर लौट रहा था। पुलिस का चेहरा अपने काम करने के तरीके से अब इतना भयानक हो गया है कि लोग शिकायत करने थाने जाने से भी घबराते हैं।

अगर कहीं मामला आतंकवादियों का हो तो पुलिस के लिए बड़ा सरदर्द होता है। ऐसी कोई खबर मिलने पर वह पहले अलर्ट जारी करती है, नाकेबंदी करती है, कई थानों को खबर करती है, बम निरोधक दस्तों, कुत्तों को जुटाती है। इस सारी कार्रवाई में इतना समय लग जाता है कि हमलावर अपना काम पूरा करके निकल जाते हैं। अक्सर पुलिस मौके पर तब पहुंचती है, जब ध्वंस और रुदन शेष रह जाता है। अगर कोई अफसर या जवान हिम्मत करके देश के दुश्मनों का मुकाबला करता भी है तो बाद में उसकी नीयत पर सवाल उठाये जाते हैं, उल्टे उसे ही गुनहगार साबित करने की कोशिश की जाती है। बटाला कांड में क्या-क्या गुल खिलाने के प्रयास हुए, कौन नहीं जानता? मुंबई में जिन्होंने दुश्मनों से मुकाबले का साहस किया, उनमें से कइयों को जान गंवानी पड़ी। कई इमानदार और निर्दोष अफसर शहीद हो गये। आम तौर पर पुलिस तंत्र में यह धारणा बन गयी है कि इस तरह के खतरे से बचने के लिए अगर बेईमानी काम आ सकती है तो बेईमान हो जाने में क्या जाता है। कम से कम जान तो बची रहेगी।

इन परिस्थितियों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अफसरों को देश के सामने खड़ी चुनौतियों का अहसास कराते हैं तो बहुत ही अजीब लगता है। यह काम हम वर्षों से करते आ रहे हैं। सरकार के नुमाइंदे दार्शनिक अंदाज में पेश आने लगे हैं। आतंकवाद बड़ी समस्या है। यह बाहर से तो आ ही रहा है, हमारा पड़ोसी मुल्क तो हथियारबंद लड़ाकों को तोड़-फोड़, मार-काट करने के लिए भेज ही रहा है, घर के भीतर नक्सली भी हुकूमत से टकराने का दुस्साहस प्रदर्शित करने लगे हैं। इसके लिए काफी हद तक सरकारें भी जिम्मेदार हैं। देश के बड़े इलाकों में 63 साल की आजादी में भी विकास की किरन नहीं पहुंची। वहां अब भी जिंदगियों में अंधेरा है, भूख है, दरिद्रता है, अशिक्षा है। वहां अब भी बच्चों के हाथों में किताबों की जगह तीर-धनुष है, कपड़े की जगह फटे-पुराने चिथड़े हैं। वहां अब भी सड़कें नहीं जातीं, नेताओं की गाड़ियों का कारवां नहीं पहुंचता। अफसर नहीं जाते। उनकी पीड़ा किसी मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री ने कभी महसूस नहीं की। वे जंगली थे, जंगली ही रह गये। पर जब उनके लिए नक्सलियों ने हथियार उठाये तो अब सबकी नजर उधर जा रही है। जब कोई बहाना नहीं था, तब तो कोई उनके दरवाजे पर नहीं पहुंचा, अब तो बड़ा बहाना है। नक्सलियों को निपटाये बगैर वहां कैसे पहुंचेगा विकास का रथ? प्रधानमंत्री दोनों मोर्चों पर एक साथ काम करना चाहते हैं। अफसरों पर बड़ी जिम्मेदारी डालना चाहते हैं। केंद्र सरकार गरीबों के लिए बहुत पैसा खर्च करती है, अगर अफसर चाहें, ठीक से निगरानी करें तो उसका लाभ असली आदमी को मिल सकता है।

परंतु क्या यह एक बड़ा सवाल नहीं है कि नौकरशाहों ने अब तक ऐसा क्यों नहीं किया, अपनी जिम्मेदारियां ठीक से क्यों नहीं निभायी? वे लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की गंगा में मधुर स्रान का आनंद क्यों उठाते रहे? सभी जानते हैं कि सरकारी योजनाओं के धन को किस तरह ठेकेदार, अफसर और मंत्री की तिकड़ी पचा रही है। जब तक इस समस्या का हल नहीं निकलता, जब तक अफसरशाही को जवाबदेह नहीं बनाया जाता, उनके कान नहीं ऐंठे जाते, न तो गरीबों को उनका हक मिलेगा, न ही आतंकवादियों और नक्सलियों को सबक सिखाना संभव हो पायेगा।

2 टिप्‍पणियां:

  1. वे लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की गंगा में मधुर स्रान का आनंद क्यों उठाते रहे?..
    आप कहते हैं तो हम भी पूछ लेते हैं ये सवाल ...मगर ये सब लोग हमारे आपके बीच के लोग ही है ...हममे से ही हैं ..

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  2. सच्ची बात..अच्छी बात
    http://rituondnet.blogspot.com/

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