ईसा को जब सूली पर चढ़ाया जा रहा था तो उन्होंने भगवान से उनके लिए प्रार्थना की, जो उनके प्राण लेने के लिए जिम्मेदार थे। कितना उदार मन था उनका, कितनी व्यापकता थी उनके चिंतन में, कितनी सहृदयता थी उनमें। उन्होंने कहा, हे ईश्वर, वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। इसलिए उन्हें क्षमा कर दे। क्या ईसा का यह कहना सच था? जिस राज्य में उन्हें सूली पर चढ़ाने का आदेश हुआ, जिस राजा ने ऐसा क्रूर आदेश दिया, जिन लोगों ने उस आदेश का पालन किया और अपने हाथ एक नेक, सच और ईमानदार आदमी के खून से रंगे, क्या वे सचमुच नहीं जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं? अगर वे जानते थे कि वे एक ऐसे आदमी की जान ले रहे हैं, जिसने कोई अपराध नहीं किया है, तो फिर वे हत्या के अभियोग से कैसे बच सकते हैं? ऐसा अभियोग राजा भले उन पर न लगाये क्योंकि उसकी नजर में तो वे उसके सच्चे सेवक थे, क्योंकि वे बिना कुछ सोचे-समझे राजा के हुक्म की तामील कर रहे थे। ऐसे सेवक तो हमेशा ही राजाओं को प्रिय रहे हैं, पर स्वयं ईसा भी उनके निर्दोष होने की बात स्वीकार करते हैं तो कुछ हैरानी स्वाभाविक है। ईसा उनका जिक्र करते हुए कहते हैं कि वे अपने अपराध के बारे में नहीं जानते। इसका मतलब ये कि या तो उनसे यह सब अनजाने में हो रहा है या फिर वे इस बारे में जानना ही नहीं चाहते।
राजा के सेवक दो तरह के होते हैं। एक तो वे जो अपनी कोई शख्सीयत ही नहीं रखते। वे अपने भीतर हमेशा राजा को लेकर चलते हैं। जब वे राजा के पास होते हैं तो आत्ममुग्ध रहते हैं और जब उससे दूर होते हैं तो राजा ही हो जाते हैं। ऐसे सेवक राजा से कभी असहमत हो ही नहीं सकते। चाहे वह उन्हें पाप में लगा दे या पुण्य में, डटे रहेंगे। वे सोचते नहीं, केवल अनुसरण करते हैं। वे सचमुच नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। उन्हें जानना भी नहीं होता। वे अपना व्यक्तित्व विसर्जित कर चुके होते हैं। दूसरे प्रकार के सेवक राजा का सम्मान तो करते हैं, पर अपना व्यक्तित्व बनाये रखते हैं, अपनी निजता कायम रखते हैं। कई बार राजा जैसा सोचता है, वे वैसा ही नहीं सोचते, राजा जैसा कहता है, वैसा ही नहीं करते। इनकी वजह से राजा कई बार संकट से बच भी निकलता है और कई बार वह सेवक को ही गंभीर संकट में डाल देता है। चाहे जितनी भी विपत्ति आये, जितना बड़ा खतरा उपस्थित हो जाये, ऐसे सेवक विचलित नहीं होते। वे हमेशा जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं और क्या परिणाम होगा।
इस दुनिया में पहले प्रकार के लोगों की भरमार है। वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। नहीं जानने में ही भलाई है, उसी में लाभ है, उसी में सम्मान है, पद है, प्रतिष्ठा है। कौन जानना चाहता है कि आजकल लोगों को ठगने से, गुमराह करने से, धोखा देने से जो धन बरस पड़ता है, वह बेचैनी पैदा कर सकता है। अगर यह जान गये तब तो चैन छिन ही जायेगा। कौन समझना चाहता है कि झूठ बोलने से जो पद, सम्मान मिल रहा है, वह एक न एक दिन पछतावा पैदा करेगा। ऐसा समझ गये तो फिर झूठ बोलने का साहस ही खत्म हो जायेगा। सभी अपने हित के लिए, अपनी तिजोरी भरने के लिए, अपना ओहदा बचाये रखने या बढ़ाने के लिए पाखंड, आडंबर और धूर्तता का लबादा ओढ़े हुए हैं, दूसरों के कंधों पर सवार होकर ऊंचा दिखने की होड़ में हैं। सारे सामाजिक रोग इसी कारण पैदा हो रहे हैं। भ्रष्टाचार, बेईमानी, ठगी, मिलावटखोरी और इससे भी भयानक अपराध यहीं से, इसी चिंतनशून्यता से जन्म ले रहे हैं।
तो क्या ईसा अपने पिता भगवान से प्रार्थना करेंगे कि इन सबको माफ कर दिया जाय? नहीं, ईसा ऐसा नहीं कर सकते। जो लोग यह जानकर पाप और कुकर्म में लिप्त हैं कि वह पाप तो है लेकिन उससे धन, पद, यश मिल सकता है, अगर समाज की नजर में बड़ा बनना है तो यही सबसे आसान रास्ता है, उनके लिए अव्वल ईसा प्रार्थना ही नहीं करेगा और अगर करुणावश उसने ऐसा किया भी तो उसकी प्रार्थना नहीं सुनी जायेगी।
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