बहुत साल पहले की बात है। मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए की पढ़ाई कर रहा था। हमारे गांव भोगापुर से करीब सात किलोमीटर दूर पर एक छोटा सा कस्बा है जेठवारा। इलाहाबाद के लिए बस पकड़ने साइकिल से जेठवारा आना पड़ता था। साथ में गेहूं, चावल की गठरी रहती थी ताकि शहर में न खरीदना पड़े। गांव से बड़े भैया जेठवारा छोड़ गए थे। मैं बस के इंतजार में वहीं सड़क पर मिठाई की एक दुकान के सामने बेंच पर बैठ गया। सामने सरकारी हैंडपंप लगा था। एक हट्टा-कट्टा आदमी बनियान और लुंगी पहने आया। वहां रखी एक बाल्टी उठाई। बाल्टी उसी दुकान की थी। वह उसमें पानी भर-भरकर वहां साफ-सफाई करने लगा। सामने सड़क के फुटपाथ पर और वहां जहां लोग खड़े होते थे, बैठते थे। कुछ बुदबुदाता जा रहा था। मसलन लोग गंदगी कर देते हैं, सफाई नहीं करते....कुत्ता भी जहां बैठता है वहां पूंछ से जमीन झाड़ लेता है। पर आदमी है कि....वगैरह।
मैंने समझा कोई समझदार आदमी है जो दुकान पर काम करता होगा। या दुकानदार का कोई गार्जियन। इसी बीच कुछ छोटे-छोटे स्कूली बच्चे वहां आ गए। कंधे पर तख्ती और बस्ते टांगे हुए। बहुत प्यासे थे। उस समय देहात के अधिकांश स्कूलों में पीने के पानी का इंतजाम नहीं होता था। बच्चे या तो आस-पास के घरों से मांगकर पानी पीते थे या रास्ते में घर लौटते प्यास बुझाते थे। बच्चे हैंडपंप से पानी पीने लगे। वह पंप छोड़कर पीछे हट गया। एक बच्चा पंप का हत्था चलाता था, तो दूसरे चुल्लू से पानी पीते थे। एक बच्चा बहुत छोटा था। कोई चार पांच साल का। उसने नन्हे-नन्हे हाथों से चुल्लू बनाई पर बनी नहीं। पानी मुंह में न जाकर उसके बदन पर कपड़े भिगो रहा था। किसी गरीब ग्रामीण के घर का बच्चा मालूम पड़ता था। कपड़े फटे-पुराने थे। उस आदमी ने झट दुकान से एक गिलास उठाई। उसमें पानी भरा और बच्चे को पिलाने लगा।
दुकान पर बैठा सेठ मुंह बनाकर बुदबुदाने लगा। कहा, गिलास जूठी करा दी। इतना सुनते ही वह आदमी उखड़ गया। हाथ में बाल्टी और होंठों पर गुस्सा। कड़क आवाज में पलटवार किया। कहा, दिनभर में तेरी दुकान पर सैकड़ों लोग आते होंगे। चार पैसे की मिठाई खाई और गिलास जूठी की। उनमें न जाने कौन टीबी, दमा जैसे छुतहे रोगों का मरीज होता होगा। पर तू सब का जूठन धोता है। उसी गिलास में बाकी सबको पानी पिलाता है। पर एक भगवान स्वरूप बच्चे को मैंने पानी पिला दिया, तो तेरी गिलास को छूत लग गया? लानत है तेरी दुकान और तुझको। ले, मैं जाता हूं। हाथ में टंगी बाल्टी को जोर से पटका और बड़बड़ाता चला गया। मैं कुछ समझ पाता कि इसके पहले ही दुकानदार धीरे से बोला, पागल है। बड़ा गुस्सैल है। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। मुझे लगा पागल वह था या हम सब दुनिया वाले?
हम सब दुनिया वाले पागल है।
जवाब देंहटाएंkunwar ji.
जो इस स्वार्थी दुनिया के साथ तारतम्य न बैठा पाया, वो पागल ही कहलाता है। सही मायने में दुनिया को ऐसे पागलों की ज्यादा जरूरत है, बजाय समझदारों के।
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा यह संसमरण।
aur boss, ye word verification hataa deejiye, suvidhajanak rahegaa tippanni karne walon ke liye>