कई दिनों बाद आज नेट पर बैठ पा रहा हूँ । कुछ व्यस्तता और कुछ तबियत नाशाद रही। बहरहाल, जब बैठ ही गया हूँ तो फिर कुछ न कुछ तो आप तक पहुँचाना ही चाहिए। इधर बैठे-ठाले मेरी कलम से कुछ अशआर काग़ज़ पर उतर आये हैं। तो पेशे ख़िदमत है मेरी एक ताज़ा ग़ज़ल। मुलाहिजा कीजिये --
बड़े दुश्मन को भी मैं अपने सीने से लगाता हूँ
वो मेरा हौसला है हौसले को आजमाता हूँ
लगाता हूँ मैं उसके सर पे आई धूप को छतरी
मैं अपने दिल का दरवाज़ा उसे ऐसे दिखाता हूँ
बड़े होकर किसी के साए को तरसें नहीं बच्चे
अभी से इसलिए मैं धूपमें उनको तपाता हूँ
क़फ़स में क़ैद बुलबुल किस तरह से छटपटाती है
मैं आगे आने वाली पीढ़ियों को यह दिखाता हूँ
हटाकर दूसरों के रास्तों से ख़ार औ' पत्थर
मैं अपनी ज़िन्दगी के रास्ते आसाँ बनाता हूँ
मेरे महबूब मेरी ज़िन्दगी की ज़िन्दगी है तू
रुलाता हूँ, हंसाता हूँ , रुठाता हूँ, मनाता हूँ
तू गहरी नींद में सोता चले जाने को ख़्वाबों में
बड़े कुछ ख़्वाब दिखलाने को मैं जग को जगाता हूँ
तेरे हाथों में लोहा है मेरे हाथों में भी लोहा
तू बंदूकें बनाता मैं तवे-चिमटे बनाता हूँ
बहुत सुंदर गजल
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