बकौल हजारी प्रसाद द्विवेदी, करने वाला इतिहास निर्माता होता है, सिर्फ सोचने वाला इतिहास के भयंकर रथचक्र के नीचे पिस जाता है। इतिहास का रथ वह हांकता है, जो सोचता है और सोचे को करता भी है।
सोमवार, 19 अप्रैल 2010
अपने को बदलो कलमकारो
जाने कब हम कलमकारों का जमीर जागेगा और सच्चाई की जंग के लिए आगे आएंगे ? आजादी के बाद जो अपेक्षाएं थीं। समतायुक्त समाज का सपना था। हर हाथ को काम और रोटी का वादा था। क्या हुआ इन वायदों और संकल्पों का ? आज भी अंधेरे में भारत सिसक रहा है। किलकारियां मार रहा है तो केवल इंडिया। वह इंडिया जहां कारपोरेट सेक्टर है। मॉल हैं। फिल्मी ग्लैमर है। राजनीति की गंगा है। थैलीशाहों और कालेधन वालों की बस्ती है। आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? हम भले ही राजनैतिक दलों को दोषी ठहरायें लेकिन वास्तविकता यह है कि आजादी के बाद कलमकारों से जो उम्मीदें थीं। वह पूरी तरह धराशायी हो गईं हैं। वह भी सत्ता का दलाल बनकर इठलाता है। उसकी पूरी कोशिश रहती है कि वह किसी पद को प्राप्त करे। उसकी पुस्तकों को पुरस्कार मिले। उसके पुत्र-पुत्रियों को अच्छा रोजगार मिले। इसके लिए भले ही उन्हें अपने आत्मसम्मान की बोली लगानी पड़े तो भी वह पीछे नहीं रहता। यही कारण है कि समाज में कलमकारों के प्रति सकारात्मक और आशाजनक द्रष्टिकोण नहीं है। यह अफसोस की बात है कि हम कलमकारों ने अपने को देवदूत समझ लिया है। आम जनता से हमारा कोई जुड़ाव नहीं रह गया है। हम आम आदमी से मिलना ही नहीं चाहते। उसकी दुःख और तकलीफों में षरीक होना हमारी शान के खिलाफ है। इस समय सारा देश महंगाई से जूझ रहा है। लोग भुखमरी के कारण आत्महत्या तक कर रहे हैं। ऐसे विषम समय में कलमकारों ने क्या जनता को जागरूक करने का प्रयास किया ? क्या उन्हें सच्चाई से अवगत कराया कि देश में बेतहाशा अच्छी फसल होने के बावजूद आम आदमी को महंगा अनाज क्यों मिल रहा है ? गरीबों को चिकित्सा और शिक्षा से क्यों महरूम किया जा रहा है ? ऐसा नहीं किया कलमकारों ने क्योंकि जनता के पास न तो कलमकारों को देने के लिए पैसे हैं और न ही वह उन्हें सुखों का भोग करवा सकती है। यही कारण है कि आज किसी भी कलमकार की समाज में कोई पहचान नहीं है। आश्चर्य तो तब होता है कि राष्ट्रिय ख्यातिप्राप्त कथित साहित्यकारों को उनके मौहल्ले वाले ही नहीं जानते। अखिर जाने क्यों ? वह न तो किसी के दुख दर्द में जाते हैं और न ही वह इस बात का ख्याल रखते हैं कि उनके क्षेत्र के लोग किस समस्या से जूझ रहे हैं। वह आम आदमी की शवयात्रा में जाना अपनी तौहीन समझते हैं। इसमें दोष किसका है कि यह बात हम अक्सर कहते हैं कि समाज में हमें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। आखिर क्यों मिले आपको आम जनता का सम्मान ? आपने क्या किया है। उनके लिए ? क्या कभी आप उनके कंधे से कंधा भिड़ाकर जनसमस्याओं के लिए आंदोलनरत् हुए ? कभी किसी निर्दोष को पुलिस से छुड़ाने के लिए किसी पुलिस थाने में गये। अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या कलमकार भी अन्य लोगों की तरह केवल कलम से मजदूरी कर रहा है या उसका समाज के प्रति भी कुछ दायित्व है। अगर समाज के प्रति वह अपने दायित्व को नकारता है तो वह किस मुंह से कहता है कि समाज में कलमकारों को उचित मान-सम्मान नहीं मिल रहा। यह प्रश्न भी अनुत्तर है कि आखिर हम किसके लिए लिख रहे हैं। क्या कवि-गोष्टी में चंद लोगों के सामने काव्य-पाठ कें लिए अथवा किसी पत्र-पत्रिका में अपनी रचनाएं छपवाने के लिए। अगर आप इसी में संतुष्ट हैं तो फिर शिकायत क्यों ? क्यों आप अपने को लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहते हो ? क्यों कहते हो अपने को जनवादी, प्रगतिशील और राष्ट्रवादी कलमकार ? याद रखिए कि अगर हमने अपने दायित्वों का पालन नहीं किया तो भावी पीढ़ियां हमें कदापि माफ नहीं करेंगी। जब हम अपनी कलम से गरीब, मजदूर,, दलित और महिलाओं के उत्पीड़न की बात लिखते हैं। लेकिन अपने घरों व प्रतिष्ठानों में हमें उन्हें ही उपेक्षित और उत्पीड़ित करते हैं। क्या यह हमारा दोगलापन नहीं है ? क्यों किसी सेठ को देखकर हमारी बांछें खिल जाती हैं और निर्धन को देखकर क्यों तिरस्कार का भाव पैदा होता है ? बदलते परिवेश में आवश्यकता इस बात की है कि हम आत्मचिंतन करें। हमें मान के साथ लोगों की कड़वी बातों को सुनने की भी आदत डालनी होगी। हम परमब्रह्म नहीं हैं। हम नियंता भी नहीं हैं। हम अन्य लोगों की भांति हाड-मांस के पुतले हैं। अन्य लोगों की तरह सारी बुराइयां हममें हैं। हम अपने मतलब के लिए किसी के सामने दुम हिला सकते हैं। जोड़-तोड़ में भी हम माहिर हैं। हम हर जगह अपनी गोटी बैठाने की जुगत में ही लगे रहते हैं। इतिहास गवाह है कि कबीर इसलिए महान नहीं थे कि वह कवि थे। वह इसलिए महान हुए कि उन्होंने निर्भीकता के साथ तत्कालीन समाज के पांखड का पर्दाफाश किया। जनता से उनका सरोकार हमेशा बना रहा। वह कलम के सौदागर नहीं थे अपितु मेहनत-मजदूरी से अपना और अपने परिवार का लालन-पालन करते थे। इसीलिए आज भी कबीर प्रासंगिक हैं। अतः अब भी वक्त है कि जाग जाओ और जनता से अपनी दूरियां मिटाओ। जिनके बारे में अपनी रचनाओं में लिख रहे हो। उन्हें गले लगाओ अन्यथा इतिहास को तुम्हें कूड़ेदान में फेंकने में देर नहीं लगेगी।
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vividh
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अच्छा आह्वान...जरूरी बात...
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