बकौल हजारी प्रसाद द्विवेदी, करने वाला इतिहास निर्माता होता है, सिर्फ सोचने वाला इतिहास के भयंकर रथचक्र के नीचे पिस जाता है। इतिहास का रथ वह हांकता है, जो सोचता है और सोचे को करता भी है।
रविवार, 4 अप्रैल 2010
दिशाहीनता का शिकार मीडिया
मीडिया अथवा पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। लेकिन वर्त्तमान परिदृश्य में वह अपनी दिशा खोता जा रहा है। पत्रकारिता का मतलब केवल समाचार देना ही नहीं होता अपितु समाज को जाग्रत करना तथा मार्गदर्शन देना भी होता है। देश की मीडिया को इस बात से कोई मतलब नहीं है की महंगाई क्यों बढ़ रही है और कौन इसके लिए जिम्मेदार हैं। महिला आरक्षण के मामले में भी मीडिया एकपक्षीय रवैया अपना रहा है। अभी इंडिया टुडे में प्रकाशित तवलीन सिंह के आलेख में स्पष्ट है कि हमारी राजनीति और मीडिया महिलाओं के प्रति कितनी संवेदनशील है। पंचायती व्यवस्था में हजारों ग्राम प्रधान, पार्षद, पञ्च, सभासद, जिला पंचायत सदस्य, ब्लाक सदस्य केवल नाम के लिए महिलाएं हैं और उनके पद का दुरूपयोग उनके पति, भाई, ससुर, बेटे तथा पुरुष मित्र कर रहें हैं। क्या मीडिया बता सकता है कि उसने इन पदों का दुरूपयोग करने वाले कितने पतियों, भाइयों तथा बेटों के खिलाफ समाचार प्रकाशित अथवा प्रसारित किया। क्या यह मीडिया की जिम्मेदारी नहीं है? स्वस्थ्य के नाम पर जनता को लूटा जा रहा है। शिक्षा दुकानों में बदलती जा रही है। महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय भ्रष्टाचार के अड्डे बनाते जा रहें हैं। और तो और मीडिया संस्थानों में भी भूमाफिया, तस्कर, दलालों तथा अवैध धंधों में लिप्त लोग अपना दखल बढ़ाते जा रहें हैं। पत्रकारिता के नाम पर उगाही हो रही है। इस सबके पीछे एकमात्र कारण यह है कि पत्रकार ने लिखना और पढना छोड़ दिया है। उसे न तो सामाजिक सरोकारों से मतलब है और न ही देश की भलाई से। क्या मीडिया को यह पता नहीं है कि एक भूमाफिया अचानक कैसे समाज का सम्मानित आदमी बन गया? एक अदना सा नेता कैसे करोड़ों से खेल रहा है? कैसे वजीफा के नाम पर सरकारी धन की लूट हो रही है? किस प्रकार सरकारी ज़मीनों पर मंदिर और मजारों के नाम पर कब्जे हो गए? किस तरह शहर का माना हुआ गुंडा विधायक और संसद बन गया? गरीबों के राशन को पचा कर कैसे लोग समाज के प्रतिष्ठित आदमी बन गए? सरकारी धन से बनने वाली ईमारत और सड़क कैसे इतनी ज़ल्दी जर्जर हो जाती है? संसद और विधायक निधि का पैसा कैसे स्कूल और कालेज रुपी निजी दुकानों में मोटी रिश्वत देकर पचाया जा रहा है? अफसोस तो इस बात का है कि मीडिया लोगों को जागरूक करने के स्थान पर अन्धविश्वासी बना रहा है। कीर्तन और भजन तथा भविष्य फल के नाम पर अज्ञानता की और धकेल रहा है। इसीलिए अभी भी समय है की मीडिया अपनी असली भूमिका के बारे में आत्मचिंतन करे, अपने दायित्व को पहचाने अन्यथा उसकी गिरती विश्वसनीयता उसे गर्त में पहुंचा देगी.
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chintan
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