मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

ओम प्रकाश तपस का जाना

वीरेंद्र सेंगर की कलम से

बात छह साल पहले की है। कई दिनों बाद ओम प्रकाश तपस से मुलाकात हुई थी। वह अपने नवभारत टाइम्स के दफ्तर से लौटकर आईटीओ से पैदल ही दरियागंज के मेरे दफ्तर में हाजिर हुए थे। काम निपटाकर मैं उनके साथ निकला। वे बोले, आईटीओ तक पैदल चलते हैं। थोड़ा ही चले थे कि एक आइसक्रीम वाली रेहड़ी दिखी। मैंने कहा तपस जी, आज आइसक्रीम खाते हैं। उन्होंने मुझे घूरा। शायद यह याद दिलाने के लिए कि बंधु भूलो नहीं कि हम दोनों डाइबिटीज वाले हैं। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, तो ऐसा करते हैं सेंगर जी, सबसे महंगी वाली आइसक्रीम खाते हैं।


मैं कुछ हैरान हुआ क्योंकि वे अक्सर महंगी आदतों पर भाषण पिला देते थे। मैंने 100 रुपये का नोट निकाला। उन्होंने नोट लिया और आइसक्रीम वाली रेहड़ी के आगे चल दिए। रास्ते में एक लाचार वृद्धा पटरी पर बैठी थी। तपस जी ने उससे कुछ पूछा, फिर उसे लगे डांटने। उसे भीख मांगने की जगह कामकाज करने की नसीहत देने लगे। इसी बीच उस महिला ने कोई दर्दनाक किस्सा बता दिया। फिर तो वे पिघल गए। उन्होंने ‘आइसक्रीम’ वाला 100 रुपये का नोट उसे दिया और आगे बढ़ गए। मैं चुप था। वे जोर से खिलखिलाए। बोले, इस ‘आइसक्रीम’ में मजा आया। शरीर और आत्मा दोनों को ठंडक मिली। इस ‘आइटम’ ने हमारी सेहत को भी नुकसान नहीं होने दिया। वह बेचारी इससे दो दिन का भोजन करेगी। अक्सर उनका ऐसा खिलंदड़ अंदाज होता था।

मैं करीब दो दशक से उन्हें करीब से जानता था। वंचितों के लिए उनके मन में करुणा का भाव था। मामला जब इनका हो तो वे निरपेक्षता की नीति को ताक पर रख देते थे। कहते थे कि इनकी हिमायत में खड़ा होना, एक पत्रकार की पहली जिम्मेदारी है। वे केवल लिखते ही नहीं थे, अपने जीवन में भी इसे उतारने की कोशिश करते थे। लंबे समय तक स्वतंत्र लेखन करने के बाद वे जनसत्ता (चंडीगढ़) से जुड़े थे। रिपोर्टिंग के दौरन पंजाब में तमाम सामाजिक संगठनों से इनकी करीबी हुई थी। मित्र संगठनों में भी उन्हें कुछ पाखंड दिखता, तो वे कलम चला देते थे। इसीलिए वे अपनी मित्र मंडली में ‘खाड़कू’ कहे जाते थे।

तब जनसत्ता में उनके बड़े भाई बनवारी कार्यकारी संपादक हुआ करते थे लेकिन तपस ने कभी कोशिश नहीं की कि उन्हें बनवारी का भाई होने का कोई लाभ मिले। कई बार तो वे उनके लेखों के प्रति अपने मतभेदों की जमकर चर्चा भी करते थे। नवभारत टाइम्स में वे लगभग डेढ़ दशक तक स्थानीय रिपोर्टिंग से जुड़े रहे। सिखों व मुस्लिम राजनीति के तमाम तानो-बानों की गहरी पहचान उन्हें हो गई थी। चाहे भूमि अधिग्रहण के मामलों में दिल्ली के किसानों की समस्याएं हों या सिखों के सामाजिक संगठनों के सरोकार, ये सब तपस की रिपोर्टिंग के प्रिय विषय थे। लंबे समय तक पंजाब में रहने के कारण सिखों की राजनीति का उन्हें खास जानकार माना जाता था। दिल्ली में 1984 में सिख विरोधी दंगों को उन्होंने बहुत करीब से देखा था। इस नरसंहार के बाद कांग्रेस के प्रति उनके मन में स्थाई गुस्सा बैठ गया था। जब भी उनका कोई मित्र कांग्रेस के प्रति जरा भी ‘मोहग्रस्तता’ दिखाता, वे भिड़ जाते।

चार महीने पहले ही उनका फोन आया था। डीएलए में छपी मेरी एक रिपोर्ट में उन्हें राहुल गांधी व कांग्रेस के प्रति कुछ ‘मोह’ नजर आया था। बोले, आप जैसे लोग भी 84 के हत्यारों का महिमा मंडन करने लगे, तो फिर ‘सच’ को पलीता लगना तय है। बड़ी मुश्किल से मैं उन्हें संभाल पाया था। यही कहकर कि समाजवादी पृष्ठभूमि के जिन नेताओं से उम्मीद कर रहे थे, वे तो एकदम पाखंडी निकले। भाजपा नेताओं को भी परख लिया गया है। ऐसे में कई मौकों पर कांग्रेस कुछ बेहतर नजर आती है। ऐसे तर्कों पर वे कहते थे कि जेपी आंदोलन के ‘हीरो’ तो जोकर निकल गये लेकिन, इसका मतलब यह भी नहीं कि कांग्रेसी ‘देवता’ लगने लगें। वे बोले थे, सेंगर जी तुम भी बिगड़ रहे हो। तुम्हारी खबर लेने दफ्तर आ जाऊंगा। काश, वे कभी आ पाते!

दिल्ली में पिछले दशक में भाषा का आंदोलन जोरों पर था। भाषा आंदोलन में वे जेल तक गए थे। वे हर किस्म के पाखंड के खिलाफ थे। इसमें दोस्तों को भी नहीं बख्शते थे। निजी जीवन में वे एकदम सर्वोदयी थे। कई सालों पहले वे डाइबिटीज के शिकंजे में आ गए थे। जड़ी-बूटियों के प्रति उनका अति विश्वास उनके लिए जानलेवा साबित हुआ। उनकी दोनों किडनियां खराब हो गई थीं। लेकिन, वे जड़ी-बूटियों से ही अपने को ठीक करके दिखाना चाहते थे। स्वाभिमान इतना कि किसी दोस्त को याद तक नहीं किया। कोई ‘सहानभूति’ दिखाए, उन्हें पसंद नहीं था। कहते थे यार-दोस्त प्यार से ‘खाड़कू’ कहते हैं। अब ‘खाड़कू’ यानी योद्धा को कभी निरीह तो नहीं नजर आना चाहिए। आखिरकार 52 वर्ष की उम्र में हमारा यह प्यारा ‘खाड़कू’ 26 अप्रैल को हमेशा के लिए चला गया। अलविदा दोस्त.

1 टिप्पणी:

  1. प्रिय मित्र ओमप्रकाश तपस के जाने का दुखद समाचार सुनकर धक्का पहुंचा है।करीब तीस साल की पहचान। राष्ट्रमण्डल खेल के दफ़्तर पर प्रदर्शन करने वाले देश भर से जो युवा दिल्ली पहुंचे थे उनकी गुरुद्वारे में टिकने-भोजन की व्यवस्था तपस भाई ने की थी।
    दिल्ली में शनि महाराज के नाम पर पैसे जुटवाने वालों की तह में जब वे गये थे तब उन्हें धमकियां मिली थीं। इंकलाबी साथी को सलाम।

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