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भाषा के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ उन लोगों ने किया, जिन पर इसके पालन-पोषण, संरक्षण-संवर्द्धन का दारोमदार था। अर्थात लेखक, साहित्यकार और मीडिया। भाषा और व्याकरण को मानकों की सीमा में बांधने और उसे अनुशासित करने का काम समाज के इसी प्रबुद्ध वर्ग ने किया। शब्द गढ़े। शब्दों के अर्थ दिए। उसके भावार्थ दिए। व्याकरण के रूप में अनुशासन की डोर खींची। पर कितनी विचित्र बात कि इतिहास ही बदल गया। जो लिखा गया, उस पर सत्यापन की मुहर लगी, पर वैसा था नहीं। मनुष्य ने अपने चेहरों पर नकाब ओढ़ा। वह जो अंदर था, वैसा बाहर दिखना बंद हो गया। विष रस भरा कनक घट जैसे। झूठ पर सच का मुलम्मा चढ़ाकर समाज में चलाया गया। मनुष्य ने भाषा को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।झूठ के शब्द गढ़े। शब्दों को पैर दिया। पैर को गति दी। सत्य को बिना हाथ-पैर कर दिया। दौड़ में उसका ठहर जाना, पीछे हो जाना और गुम हो जाना स्वाभाविक था। सो हुआ। इतिहास लेखन का काम करीब-करीब बंद है। अब प्रिंट मीडिया को इतिहास का हिस्सा मान लिया गया है। कहा जाता है यह दस्तावेजी इतिहास है। पर यह माध्यम कहां से कहां पहुंच गया, दुनिया जानती है। लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाने वाला यह वर्ग अब समाज, मानव सभ्यता और मानव हित की बात नहीं करता। उसे बिकाऊ माल चाहिए। ऐसा माल जो सनसनी पैदा करे। जो बिकाऊ हो। इलेक्ट्रॉनिक चैनल टीआरपी की बात करते हैं। वह खबर जो एक समय सबसे ज्यादा देखी जाए। जाहिर है वही देखी जाएगी, जो आंखों को झकझोरेगी। भले ही वह मनुष्य की अंत:चेतना को विकृत करती हो। हिंसा, सेक्स इस दौड़ में अव्वल हैं। ध्यान कीजिए, जब बहुराष्ट्र्यीय फौजों के दर्जनों युद्धक विमान खाड़ी में बेशुमार बमबाजी कर रहे थे, तो सीएनएन उसका सजीव दूरसंप्रेषण (लाइव टेलीकास्ट) कर रहा था। धरती पर चारों तरफ आग लगी थी। तेल के कुए धूं-धूं कर जल रहे थे। लपटें आसमान छू रहीं थीं। बस्तियां जल रहीं थीं। जिंदा आदमी, हजारों महिलाएं और बच्चे पुतलों की मानिंद जलकर खाक हो रहे थे। और, दूर देशों के दर्शक डाइनिंग टेबल पर पराठों के साथ सॉस और चाय की चुस्कियां ले रहे थे। सोमालिया और इथोपिया में अकाल और दुर्भिक्ष से लाखों की मौत खबर नहीं बन सकी। इंसानियत की जिंदा मौत और तबाही पर जश्न मनाने का ऐसा दृश्य इतिहास में शायद ही कहीं और देखने को मिले। नंगे और अधनंगे फैशन समारोहों से कोई चैनल अछूता नहीं रहता। मचलती, बलखाती सुंदरियां हर चैनलों पर देखी जाती हैं। उन्हें वह चटनी की तरह परोसते हैं ताकि दर्शक आंखें सेंकते रहें। प्रिंट मीड़िया के जितने भी ग्रुप हैं, उनकी लिखित घोषणा में यह शामिल होता है कि हम समाज में सत्य को उदघाटित करने, उसकी रक्षा करने, बिना किसी लालच व भय के समाचार व विचार को प्रकाशित करने का संकल्प लेते हैं। पर सब झूठ। धन, पद, सत्ता में भागीदारी के लालच में सत्य को बार-बार बेचा जाता है। जिसके पास पैसा है, पूरा पन्ना क्या, पूरा अखबार ही खरीद लेता है। झूठ जीतता है, सच कोने में दुबक जाता है। भाषा में जो बड़े तमीजदार दिखते हैं, वे कर्म के स्तर पर असभ्य, अशिष्ट और पाखंडी होते हैं।
भाषा के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ उन लोगों ने किया, जिन पर इसके पालन-पोषण, संरक्षण-संवर्द्धन का दारोमदार था। अर्थात लेखक, साहित्यकार और मीडिया। भाषा और व्याकरण को मानकों की सीमा में बांधने और उसे अनुशासित करने का काम समाज के इसी प्रबुद्ध वर्ग ने किया। शब्द गढ़े। शब्दों के अर्थ दिए। उसके भावार्थ दिए। व्याकरण के रूप में अनुशासन की डोर खींची। पर कितनी विचित्र बात कि इतिहास ही बदल गया। जो लिखा गया, उस पर सत्यापन की मुहर लगी, पर वैसा था नहीं। मनुष्य ने अपने चेहरों पर नकाब ओढ़ा। वह जो अंदर था, वैसा बाहर दिखना बंद हो गया। विष रस भरा कनक घट जैसे। झूठ पर सच का मुलम्मा चढ़ाकर समाज में चलाया गया। मनुष्य ने भाषा को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।झूठ के शब्द गढ़े। शब्दों को पैर दिया। पैर को गति दी। सत्य को बिना हाथ-पैर कर दिया। दौड़ में उसका ठहर जाना, पीछे हो जाना और गुम हो जाना स्वाभाविक था। सो हुआ। इतिहास लेखन का काम करीब-करीब बंद है। अब प्रिंट मीडिया को इतिहास का हिस्सा मान लिया गया है। कहा जाता है यह दस्तावेजी इतिहास है। पर यह माध्यम कहां से कहां पहुंच गया, दुनिया जानती है। लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाने वाला यह वर्ग अब समाज, मानव सभ्यता और मानव हित की बात नहीं करता। उसे बिकाऊ माल चाहिए। ऐसा माल जो सनसनी पैदा करे। जो बिकाऊ हो। इलेक्ट्रॉनिक चैनल टीआरपी की बात करते हैं। वह खबर जो एक समय सबसे ज्यादा देखी जाए। जाहिर है वही देखी जाएगी, जो आंखों को झकझोरेगी। भले ही वह मनुष्य की अंत:चेतना को विकृत करती हो। हिंसा, सेक्स इस दौड़ में अव्वल हैं। ध्यान कीजिए, जब बहुराष्ट्र्यीय फौजों के दर्जनों युद्धक विमान खाड़ी में बेशुमार बमबाजी कर रहे थे, तो सीएनएन उसका सजीव दूरसंप्रेषण (लाइव टेलीकास्ट) कर रहा था। धरती पर चारों तरफ आग लगी थी। तेल के कुए धूं-धूं कर जल रहे थे। लपटें आसमान छू रहीं थीं। बस्तियां जल रहीं थीं। जिंदा आदमी, हजारों महिलाएं और बच्चे पुतलों की मानिंद जलकर खाक हो रहे थे। और, दूर देशों के दर्शक डाइनिंग टेबल पर पराठों के साथ सॉस और चाय की चुस्कियां ले रहे थे। सोमालिया और इथोपिया में अकाल और दुर्भिक्ष से लाखों की मौत खबर नहीं बन सकी। इंसानियत की जिंदा मौत और तबाही पर जश्न मनाने का ऐसा दृश्य इतिहास में शायद ही कहीं और देखने को मिले। नंगे और अधनंगे फैशन समारोहों से कोई चैनल अछूता नहीं रहता। मचलती, बलखाती सुंदरियां हर चैनलों पर देखी जाती हैं। उन्हें वह चटनी की तरह परोसते हैं ताकि दर्शक आंखें सेंकते रहें। प्रिंट मीड़िया के जितने भी ग्रुप हैं, उनकी लिखित घोषणा में यह शामिल होता है कि हम समाज में सत्य को उदघाटित करने, उसकी रक्षा करने, बिना किसी लालच व भय के समाचार व विचार को प्रकाशित करने का संकल्प लेते हैं। पर सब झूठ। धन, पद, सत्ता में भागीदारी के लालच में सत्य को बार-बार बेचा जाता है। जिसके पास पैसा है, पूरा पन्ना क्या, पूरा अखबार ही खरीद लेता है। झूठ जीतता है, सच कोने में दुबक जाता है। भाषा में जो बड़े तमीजदार दिखते हैं, वे कर्म के स्तर पर असभ्य, अशिष्ट और पाखंडी होते हैं।
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