लोकतंत्र में सत्ता जनता की होती है, यह बात अब एक सूक्ति बन कर रह गयी है. ऐसा केवल इसलिए हुआ है कि जनता ने ही अपनी शक्ति भुला दी है, वह टुकड़ों-टुकड़ों में बंट गयी है. जो जिस खेमे में है, वह उसी की नजर से चीजों को देखता है और उसी के द्वारा उपलब्ध कराये गए आंकड़ों के आईने में परिस्थितियों का विश्लेषण करता है. यानि जनता अब जनता नहीं रही, वह दलबंदी का शिकार हो गयी है. उनमें से कुछ भाजपाई हैं, कुछ कांग्रेसी, कुछ मार्क्सवादी. वे जिस पार्टी में हैं, उसी की तरह सोचते हैं. बचे हुए लोगों में से कुछ व्यक्तिपूजा की परंपरा में दीक्षित हो गए हैं. वे या तो मुलायमवादी हैं या मायावादी या किसी और नेता के व्यक्तिगत विचारों से संचालित हैं. यह बंटवारा अपने-अपने लाभ के आधार पर हुआ है. जिसको जहाँ से लाभ हो रहा है या होने वाला है, वह उसके गुणगान में लगा हुआ है. जो दलों या व्यक्तियों से प्रतिबद्ध नहीं हैं, उनमें से बहुत सारे केवल बुद्धिवादी हैं, अच्छा भाषण करते हैं, काम पड़ता है तो पीछे हट जाते हैं. ऐसे लोग बहुत ही कायर और डरपोंक हैं.ज्यादातर बुद्धिजीवी केवल शब्दजीवी होकर रह गए हैं. इस देश का सबसे बड़ा संकट यह है कि यहाँ अब जनता नाम की चीज बची ही नहीं है और अगर बची भी है तो वह किसी कोने में हताश-बदहवास नेताओं के भाषणों को सुन-सुनकर हैरान है.
जहाँ तक पारदर्शिता और परिवर्तन की बात है, उसकी अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती, जो यथास्थिति बनाये रखकर अपने स्वार्थ पूरा करने में लगे हैं, अपने पुत्रों-पुत्रियों को जगह-जगह बिठाने में जुटे हैं. सत्ता का चरित्र ऐसा ही होता है. हिंदुस्तान की सत्ता कोई अपवाद नहीं है. यहाँ भी नेता अपने बड़े पेट भरने में व्यस्त हैं. जब तक उन्हें ठोकर नहीं लगेगी, तब तक वे अपनी गन्दी आदतें नहीं छोड़ेंगे. ठोकर मारेगा कौन? यही असली चिंतन का प्रश्न है. इस देश में दो-दो क्रांतियाँ विफल हो चुकीं हैं. आजादी की लड़ाई लड़ने वाले बहादुर नवजवान ज्यादातर गरीब और मध्यम वर्ग से सम्बंधित परिवारों से आये थे. उन्होंने कुर्बानियां दीं, उन्होंने शहादत दी, उन्होंने आन्दोलन चलाये. चाहे वह गरम दल रहा हो या नरम दल. सर कटाने के लिए जो बच्चे आगे आये थे, वे छोटे-छोटे घरों के थे. उनके सपने थे, उनके संकल्प थे, उनका चिंतन था. वे एक ऐसा भारत चाहते थे जो देश के बहुसंख्य गरीब परिवारों का दर्द समझे, उनके लिए उन्हें विकास की प्रक्रिया से जोड़े और देश से गरीबी को ख़त्म करे पर दुर्भाग्य सत्ता उन लोगों की हथेली में आ गिरी, जो फूलों की सेज पर सुख और ऐश्वर्य के बीच पले-बढे थे, लन्दन और न्यूयार्क के सपने जिनकी आँखों में कैद थे. परिणाम यह हुआ कि देश पूंजीवादियों के हितरक्षण की दिशा में चल पड़ा. गरीबों की संख्या बढती गयी, उनकी कठिनाईयां भी बढती गयी, उनका गुस्सा भी बढ़ता गया. अभी भी गरीबों को निरंतर छला जा रहा है. उनकी बातें तो खूब होतीं हैं पर उनके भाग्य को बदलने की कोशिश कभी नहीं होती. आशय यह कि आजादी के लिए जो बलिदान हुए, वे व्यर्थ गए.
दूसरी जनक्रांति आपातकाल की प्रतिक्रिया में जय प्रकाश नारायण की अगुआई में हुई. सारा देश उठ खड़ा हुआ था. सबने मिलकर एक निरंकुश तानाशाही शासन को उखाड़ फेंका पर उनकी ताकत लेकर आये जनता के नेता आपस में ही पदों के लिए झगड़ने लगे. जनता देखती रह गयी और उसके सपने रेत के महल की तरह भरभराकर ढह गए.
फिर तो नेताओं ने समझ लिया कि जनता को एक होने का मौका मत दो, उसे देश की एकमेक जनता की तरह सोचने का अवसर मत दो, उसे बांटकर रखो. बिलकुल अंग्रेजों की तरह चाल खेली गयी और देश की सम्पूर्ण जनता को कुनबों में तोड़ दिया गया. अब देश की नसों का खून चूसने वाले परजीवी पूरी तरह आज़ाद हैं कुछ भी करने के लिए. कोई विरोध नहीं होता, कोई नाराजगी नहीं दिखती. कभी-कभी निजी मामलों पर लोग गुस्सा होते दीखते हैं, लेकिन ऐसे गुस्से मामूली दाम देकर खरीद लिए जाते हैं, मौद्रिक अनुग्रह की छीटें उन्हें शांत कर देतीं हैं.
फिर अब क्या उपाय है? क्या केवल इंतजार किया जा सकता है या कुछ करने को बाक़ी है? रास्ते कभी बंद नहीं होते. एक रास्ता बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है. जनता को राजनीति के षड्यंत्र से वाकिफ करना होगा, इससे उसे होने वाले नुकसान के बारे में बताना होगा. पर उसे भाषणों से इतनी अलर्जी है कि अब वह केवल लिखे हुए या कहे हुए पर भरोसा नहीं करने वाली. उसे अब जीवन के प्रयोगों के माध्यम से समझाना होगा. कुछ लोगों को अपनी आकांक्षाओं का बलिदान करके समाज के लिए, देश के लिए कुछ करने का बीड़ा उठाना होगा. निकलना होगा लोगों के बीच, उसी तरह जिस तरह कभी बुद्ध निकले थे, गाँधी निकले थे. पहले जनता का भरोसा जीतना होगा, उनकी जिंदगियों का हिस्सा बनना होगा. और जब उनके दिल आप के सामने खुल जायेंगे तब उनको राजजन्य साजिशों के बारे में बताना होगा. यह एक आदमी के बूते का काम नहीं है. इसमें क्रांतिकारियों की जमात को जुटना होगा. जनता के लिए समर्पित कर्मयोगियों की तरह.
नक्सलबाड़ी के जनक कानू सान्याल का सशस्त्र क्रांति से जब मोहभंग हुआ था, उन्होंने कहा था कि क्रांति एक साथ जनता के उठ खड़े होने से ही हो सकती है. करोड़ों लोगों का समवेत जनदबाव ही सत्ता की सुख-सुविधा में मस्त नाकारा लोगों को कुर्सियां छोड़ कर हट जाने को मजबूर कर सकता है. जब जनता आती दिखेगी, उन्हें सिंहासन खाली करना ही पड़ेगा. परिवर्तन का, जनता को वास्तविक सत्ता दिलाने का और कोई शार्ट- कट नहीं है. क्या हम एक और जनक्रांति के लिए तैयार हैं?
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