हाँ. आप अगर इसे पढ़ रहे हैं तो आप के लिए एक शेर अर्ज करता हूँ---
बगैर छाँव के होता नहीं गुजर उसका
हमारे साथ न हो पायेगा सफ़र उसका
ये जिसका अशआर है, उनका नाम है जनाब ओम प्रकाश नदीम. ग़ज़ल की दुनिया में एक ऐसा नाम, जिसे आने वाली पीढियां न केवल याद रखेंगी बल्कि उसकी रौशनी में आगे का सफ़र तय करेंगी. एकदम साधारण से साधारण बात, जो हम सबके जहन में आती है पर हम चाह कर भी उसे कह नहीं पाते, नदीम भाई की कलम पर आकर चमक उठती है. वे नए ज़माने के उन शायरों में शरीक किये जा सकते हैं, जिनसे ग़ज़ल के आँचल को बहुत सारे खुबसूरत और उम्दा फूलों की उम्मीद है. सबसे बड़ी बात यह कि वे एक बेहतरीन इन्सान हैं.आज के ज़माने में दिन-ब-दिन इंसानियत की ही कमी होती जा रही है. एक अच्छा इन्सान अगर कुदरत के करिश्मे से शायर होने की इज्जत भी हासिल किया हुआ हो तो वह इस बिगड़ती हुई दुनियां के लिए परवरदिगार का तोहफा होता है. ओम प्रकाश के बारे में मैं यह पूरी तसल्ली से कह सकता हूँ. वे फतेहपुर में २६ नवम्बर १९5६ को जन्मे. १९८६-८७ के दौर में उरई में तैनाती के दौरान ग़ज़ल के उस्ताद जनाब बख्तियार मशरिकी साहब के संपर्क में आने के बाद उनका शायर जाग उठा. उनकी तीन गज़लें यहाँ पेश हैं
(१)
जज्ब होना है तो मिटटी पे ठहरिये साहिब
और बेकार ही बहना है तो बहिये साहिब
बात कुछ और है कुछ और न कहिये साहिब
आप फ़नकार हैं फ़नकार ही रहिये साहिब
लोग कहते हैं कि चादर में सिमट कर रहिये
हम ये कहते हैं कि चादर को बदलिए साहिब
हमने सोचा था कि वो पलकें बिछाए होगा
उड़ गए होश कहा उसने जो कहिये साहिब
गैर के दर्द में आसान है ये कह देना
ठीक हो जायेगा सब हौसला रखिये साहिब
(2)
कौन बताएगा क्या बुरा है क्या भला
बेटे वे भला किया बाप को बुरा लगा
नफरतों की राह में कुछ समझ नहीं सका
प्यार की पनाह में सब समझ में आ गया
धर्म की वो आड़ थी आड़ क्या पहाड़ थी
उसने हर गुनाह के साये को छिपा लिया
क्या पता था आदतन मुस्करा रहा था वो
उसने बेसबब मेरा हौसला बढ़ा दिया
पेट भर गया तो क्या भूख तो अभी भी है
वो भी बच न पायेगा जो भी है बचा-खुचा
रंग थे अलग-अलग रूप सब का एक था
कोई था खुला हुआ कोई था ढंका हुआ
(3)
भटकना तय था सफ़र में वो राह ऐसी थी
सफ़र भी करना जरुरी था चाह ऐसी थी
हमारा जज्बा-ए-खुद्दार कुछ न कर पाया
पनाह मांग गए हम पनाह ऐसी थी
हमारे होश पे मूसा का रंग चढ़ने लगा
जमाल ऐसा था उसका निगाह ऐसी थी
अजीब किस्म की खुशबू फ़जां में फैल गयी
तुम्हारी याद में निकली वो आह ऐसी थी
कहीं न रुकने का मन था न फिक्र मंजिल की
लगा की चलते ही जाएँ वो राह ऐसी थी
(अगर आप नदीम साहब से संपर्क करना चाहते हैं तो उनका दूरभाष नम्बर है--09456460659)
wow achi rachan he
जवाब देंहटाएंaap ko badhai
अजीब किस्म की खुशबू फ़जां में फैल गयी
तुम्हारी याद में निकली वो आह ऐसी थी.............
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/