अरुंधती राय ने एक नयी बहस छेड़ दी है। उन्हें क्रांति से प्यार हो गया है। हाथ में बंदूक और चेहरे पर मुस्कान, इस छवि से उन्हें रोमांस करने का मौका मिला। वे नक्सल क्रांति की सचाई की खोज में दंडकारण्य गयीं थीं। सीपीआई माओइस्ट की अतिथि बनकर वहां रहीं। वहां उन्होंने नक्सल नेताओं से मुलाकात की, उनसे बात की, उनके परिवारों, बच्चों से मिलीं, उनके साथ कई रातें बितायीं। उसके बाद उन्हें ज्ञान हुआ कि क्रांति ही सारी समस्याओं, खासकर गरीबों की समस्याओं का समाधान है।
लौटकर उन्होंने एक लेख लिखा, वाकिंग विद कामरेड्स। इस लेख में नक्सलियों के राजनीतिक दृष्टिकोण पर कोई बात नहीं कही गयी है। अगर हथियारबंद क्रांति आज की जरूरत है तो क्यों? आखिर लोकतांत्रिक तरीकों से वे लक्ष्य क्यों नहीं प्राप्त किये जा सकते, जिनके लिए क्रांति को आदर्श मानकर चलने की जरूरत महसूस की जा रही है? समाज और सत्ता को बदलने के क्या और तरीके नहीं हो सकते? इन सवालों के संदर्भ में अगर नक्सल आंदोलन को परखने की वे कोशिश करतीं तो शायद बात कुछ और होती लेकिन वे जिस तरह अपनी बात कहती हैं, जो ब्योरे अपने लेख में देती हैं, वे साफ बताते हैं कि उनका नजरिया नक्सल राजनीति के परीक्षण का नहीं है, उनके प्रशस्तिगायन का है।
लगता है कि अरुंधती उससे आत्ममुग्धता के स्तर तक सम्मोहित हैं, उसे एकमात्र सामाजिक, राजनीतिक सत्य की तरह स्वीकार कर चुकी हैं। और यह बहुत ही सहज है कि जब कोई किसी सत्य को स्वीकार कर लेता है, तो वह सिर्फ उसकी स्थापना करता है, उसका परीक्षण नहीं। अगर उसने भ्रांतिवश या नासमझी में ऐसा किया है तो वह महिमामंडन से बच नहीं सकता। अरुंधती के साथ भी ऐसा ही है। उनके खिलाफ नक्सल हिंसा के महिमामंडन के लिए कुछ लोगों ने पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज करायी है पर पुलिस से बहुत उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। वह हत्या, अपहरण को तो अपराध समझती है लेकिन दार्शनिक या वस्तुगत विषयों का बहुत संज्ञान नहीं लेती। पुलिस कुछ करे या न करे, परंतु अरुंधती राय को कुछ लेखकों के प्रखर प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है।
सौमित्र घोष को चिंता है कि सत्ता बंदूक की नोक से निकलती है, इस धारणा को जीने वाले नक्सलियों का महिमामंडन किया जा रहा है। अरुधती ही नहीं कोई भी मेधासंपन्न व्यक्ति सार्क्सवादी, माओवादी दर्शन के सौंदर्य से प्रभावित हो सकता है, उनके सपने बहुत रोमांचक दिखते हैं पर ऐसा देखा गया है कि जैसे ही वे अमल में आते हैं, जमीन पर उतरते हैं, बदसूरत हो जाते हैं, अमानवीय हो जाते हैं। सुंदर चेहरे के पीछे तानाशाही, ताकत और सत्ता को शैतान दिखायी पड़ने लगता है। दुनिया भर में साम्यवादी क्रांतियां इसीलिए असफल हुईं कि उनके नेता सत्ता में आते ही जनता से कट गये। क्या हम इतिहास से सबक लेने को तैयार हैं या उन्हीं पुरानी धारणाओं, विचारों की गंदी कोठरियों में कैद रहना चाहते हैं? अरुंधती कहती हैं कि नक्सल नेता जनता का प्यार हासिल करने के प्रयास में लगे हैं। हां, हमेशा ऐसा ही हुआ है, पहले प्यार हासिल किया जाता है लेकिन प्यार मिल जाने के बाद जनता पीछे कर दी जाती है, पार्टी आगे आ जाती है। क्रांतिकारी सवालों का स्वागत नहीं करते। वे सिर्फ इतना चाहते हैं कि लोग उनके सामने झुके रहें। लगता है कि उन्हें समझने के पहले ही राय उनके आगे नतमस्तक हो गयी हैं।
अनिर्बन निगम का मानना है कि अक्सर बुद्धिजीवी किसी विचारधारा को शेयर करने की जगह, उसके शिकार हो जाते हैं, यह बहुत ही खतरनाक बात है। दंडकारण्य में बंदूक और बारूद के जिस सौंदर्य से अरुंधती आत्मविभोर हैं, वह उन्हें कुछ भी सोचने का मौका नहीं देता। इसीलिए वे चिंतन और विश्लेषण की जगह कामरेडों की वर्दियों और बंदूकों में ही खो कर रह जाती हैं। वे जंगलों में रहने वाले युवकों के क्रांति के सपनों से इस तरह खुद को जोड़ लेती हैं कि उन्हें कुछ और दिखता ही नहीं। यह पागलपन जैसी स्थिति है। विचार से दूर, सम्मोहन के पास, निहायत ही निरर्थक प्रलाप की तरह।
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