आखिर जनता की पीड़ा से जुड़ी खबरें अक्सर छोटी क्यों हो जाती हैं? उन पर संसद में चर्चा क्यों नहीं होती? पीड़ित लोगों को सहारा देने के लिए हंगामे क्यों नहीं होते? संसद क्या निजी वैमनस्य और दलगत प्रतिद्वंद्विता निपटाने की चौपाल है? वहां अपनी महिला दोस्त पर मेहरबानी के लिए शशि थरूर के मामले को तूल दिया जाता है क्योंकि इससे विपक्षी पार्टियों को सत्तारूढ़ दल को घेरने, उसे नंगा करने में मदद मिल सकती है। वहां दांतेवाड़ा के नरसंहार पर केवल इसलिए हल्ला मचाया जाता है कि इससे कांग्रेस को पसीना आ सकता है।
थरूर का मामला बेशक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें हो सकता है कि मंत्री ने अपनी दोस्त को आर्थिक लाभ पहुंचाने के लिए अपने पद का, अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया हो। इसकी जांच होनी ही चाहिए। इसी तरह दांतेवाड़ा में हमारी सरकार और खुफिया तंत्र की असफलता विचारणीय है, देश की सुरक्षा को कैसे मजबूत किया जाय, यह भी खासा महत्व का सवाल हो सकता है लेकिन इससे भी ज्यादा खास बात उन परिवारों की ओर नजर डालने की है, जिनके बच्चे नक्सलियों के शिकार बन गये। उनका क्या दोष था, वे तो अपने कर्तव्य का पालन कर रहे थे। यह इसलिए जरूरी है कि कहीं लोगों का सरकार की कायराना हरकत देखकर राज्य की शक्ति से भरोसा न उठ जाय और वे अपने बच्चों को सेना और अर्धसैन्य बलों में भेजना बंद न कर दें।
इन मामलों पर सकारात्मक दृष्टिकोण से बात होनी चाहिए ताकि सत्ता पक्ष और विपक्ष मिलकर इन प्रश्नों पर गंभीरता से गौर करें और समाज और देश के लिए उचित रास्ता निकालें। ऐसा कुछ हो कि गलतियां दुहराने के अवसर न आयें। अगर कोई भ्रष्ट हैं, तो वह पद पर बने रहने में कामयाब न हो और कोई साफ-सुथरा है तो उसे अनावश्यक लांछनों में न घिरना पड़े। इसी तरह देश के भीतर देश के खिलाफ लड़ने वाले लोगों की नकेल इस तरह कसी जाय कि उनके हाथ फिर किसी निर्दोष पर उठने से पहले कांपें। केवल खेमेबाजी करके एक-दूसरे को घेरने और हल्ला मचाने में संसद का कीमती समय जाया नहीं होना चाहिए।
परंतु इन बहसों में डूबकर हम जनता पर आयी आपदाओं को नजरंदाज कर दें, यह निश्चित ही आपत्तिजनक है। असम, पश्चिम बंगाल और बिहार के कई इलाकों में तूफान से लाखों लोग बेघर हो गये हैं, डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों की जानें चलीं गयीं हैं। इस हल्ले-हंगामें में हमने उधर देखा ही नहीं। संसद में पीड़ितों के प्रति न तो कोई सहानुभूति जतायी गयी, न ही उनकी मदद के लिए कोई बात कही गयी। वास्तविक संकट में जनता के प्रति हमारे जनप्रतिनिधियों की यह आपराधिक उदासीनता अत्यंत शर्मनाक है। इसकी जितनी निंदा की जाये, कम होगी।
डा.साहब इसमें एक बहुत बडी भूमिका अपनी मीडिया की भी है , अफ़सोस कि उसे आजतक यही नहीं पता चल पाया है कि क्या जरूरी है और क्या गैर जरूरी , सिर्फ़ पैसे और बाजार का ही बोलबाला है । जिसमें विवाद का स्थान सर्वोपरि है । सामयिक लेख के लिए धन्यवाद
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