देखिये तो इन नेताओं के हृदय में गरीबों के लिए कितनी सहृदयता है, कितना अपनापन है, कितनी वेदना है। राहुल गांधी और मायावती, दोनों के दिल में। दोनों गरीबों और दलितों के लिए सब कुछ करने को तैयार हैं। दोनों ही उनका भला चाहते हैं। उसके लिए रैलियां निकाल रहे हैं, भाषण कर रहे हैं। पर समझ में नहीं आता कि दोनों के इरादे एक जैसे हैं तो लड़ाई किस बात की है, एक-दूसरे पर लांछन क्यों लगाये जा रहे हैं, आरोप क्यों लगाये जा रहे हैं। असल में ये झगड़ा वोट का है। इस तरह वे अपना, अपनी पार्टी का भला करना चाहते हैं, खुद को मजबूत बनाये रखना चाहते हैं। मजबूत वही रहेगा, जिसे ज्यादा वोट मिलेंगे। इसलिए ज्यादा से ज्यादा वोट परम लक्ष्य है। यह कोई नयी बात नहीं है, यह खेल लंबे समय से चल रहा है। जातियों के नाम पर, संप्रदायों के नाम पर और गरीब, मजदूर, महिला, दलित, कमजोर और युवाओं का नाम पर।
एक बार वोट मिल जाने के बाद फिर ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं रहती। इसलिए कि अगर ज्यादा इमानदारी से और राजनीतिक बाड़बंदी से ऊपर उठकर मिलजुलकर काम किया गया तो हो सकता है ये वोट ही न रह जायें। गरीबी है तब तक गरीब को आसरे की आवश्यकता है, गरीबी घटी या गरीब अच्छा खाने-पीने लायक, अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला पाने लायक हो गया तो वह भी सोचना शुरू कर देगा, अच्छा-बुरा समझने लगेगा, अपने विवेक का उपयोग करने लगेगा। इसलिए ज्यादा झंझट में पड़ने की जरूरत नहीं है, कभी-कभी गरीब के आगे कुछ टुकड़े फेंकते रहो, वह उतने से ही कृतज्ञ महसूस करेगा, दाता का गुणगान करेगा। कभी गरीब बस्ती में घूम जाओ, किसी के यहां भोजन कर लो, झोपड़ी में रात बिता लो, बहुत मन हो तो हैंडपंप लगवा दो, गांव तक खड़ंजा बिछवा दो। इससे ज्यादा गरीब को क्या चाहिए। नहीं उसे सबके बराबर करने का साहस दिखाना बेवकूफी होगी। सभी ऐसा ही सोचते आये हैं, इसीलिए गरीब, दलित जहां आजादी के बाद थे, वहीं आज भी खड़े हैं।
मायावती को तो इस काम में महारत हासिल है। उन्होंने कांशीराम से राजनीति की शिक्षा पायी है। दलितों के लिए वे कोई भी कदम उठा सकती हैं, किसी से भी हाथ मिला सकती हैं। सत्ता तक पहुंचने के उनके राजनीतिक इतिहास से सभी वाकिफ हैं। जैसा अवसर हो, वे वैसा करने में संकोच नहीं करतीं। अपनी ताकत बढ़ाने के लिए वे किसी भी राजनीतिक दल की ताकत का इस्तेमाल करतीं आयी हैं। कभी खांटी दलितों की राजनीति अब सर्वजन की बन चुकी है। सर्वजन के लाभ की निष्ठा से नहीं, उनकी वोट की ताकत हासिल करने की प्रेरणा से संचालित होकर दलीय-दर्शन में यह बदलाव आया है।
राहुल भी चूंकि उत्तर प्रदेश में 2012 तक कांग्रेस की वापसी के लिए कृतसंकल्प हैं, इसलिए उनकी नजर भी वोट बढ़ाने पर ज्यादा है, गरीबों के कल्याण पर कम। अगर उनके मुताबिक केंद्र के फंड का माया सरकार दुरुपयोग कर रही है, पैसा गरीबों तक नहीं पहुंच रहा है तो क्या केंद्र को राज्य से अपने हिस्से के धन के उपयोग के बारे में ब्यौरा मांगने का हक नहीं है? केंद्र अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन पर आखिर निगरानी क्यों नहीं रख सकता है? जो भी हो मगर राहुल में अभी इमानदारी से बात समझने और उसे कह देने की आदत है, जो अच्छी बात है। अगर वे ऐसे ही बने रहे तो लोग उन्हें मौका देने की सोच सकते हैं। जैसा राहुल कहते हैं, गरीबों में ताकत तो है पर वे समझ नहीं पाते कि इस ताकत का वे सामूहिक रूप से इस्तेमाल कैसे करें। जिस दिन उन्हें यह समझ में आ जायेगा, कोई उनकी गरीबी का फायदा नहीं उठा पायेगा, उसका उपहास नहीं उड़ा पायेगा।
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