शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

हर हथेली खून से तर

मौत का एक दिन मुअइयन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती। आप कह सकते हैं कि यह एक उम्दा शेर है। इसलिए कि इसमें जिंदगी का एक बेहतरीन फलसफा है। सबको एक दिन मरना है फिर भी आदमी अनिश्चितकाल तक जीना चाहता है, कभी मरना नहीं चाहता। कितने लोग हैं , जो सामने खड़ी मौत के साथ हो लेने को तैयार हैं? शायद कोई भी नहीं। यक्ष ने युधिष्ठिर से कुछ ऐसा ही सवाल किया था। सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है। युधिष्ठिर ने जवाब दिया था, मृत्यु निश्चित होते हुए भी आदमी जीना चाहता है, इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है? यह बात हम सभी जानते हैं पर कहने की अदा लुभाती है। गालिब ने जिस तरह इसी बात को बयां किया, वह बेशक हर किसी को पसंद आती है। यही कला है। कला मन को छू लेती है या यूं कहिये कि जो मन को छू ले उसमें कहीं न कहीं कलात्मकता है।

समूची प्रकृति एक कलात्मक अभिव्यक्ति है। सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, तारे सभी एक तयशुदा रास्ते पर चलते हैं। करोड़ों-अरबों विशालकाय पिंड समूचे ब्रह्मांड में चक्कर लगा रहे हैं, लेकिन वे एक दूसरे से शायद ही टकराते हों। नदी, झरने, झीलें, सागर किसका मन नहीं मोह लेते। इसी धरती पर बर्फ से ढंके पहाड़ और फूलों से ढंकी वादियां हैं। तितली, जुगनू और रंग-विरंगी मछलियां किसका हृदय नहीं जीत लेती हैं। प्रकृति को ठहरकर निहारिये तो हर जगह उसकी कलात्मक संपूर्णता दिखायी पड़ती है। वह विराट है, वह स्वयं ही खुद को प्रकट करती है, रचती है और नित नये रूप में सामने आती है। रचना की यह शक्ति मनुष्य को भी सहज ही मिली है। उसने भी बहुत कुछ रचा है।

विज्ञान और कला दोनों ही मनुष्य को प्रकृति से विरासत में मिले हैं। विज्ञान तर्क से रचता है। आज सारी दुनिया उसके चमत्कारों से प्रभावित है, उनका उपयोग कर रही है। जीवन को विज्ञान ने तमाम सुविधाएँ दी हैं। आप आसमान में उड़ सकते हैं, आप एक जगह बैठे-बैठे विश्व के सुदूर इलाकों की यात्रा कर सकते हैं, हजारों मील दूर बैठे लोगों से बातें कर सकते हैं। यह आधुनिक जीवन की उपलब्धियां विज्ञान की देन हैं। यह भौतिक या गणितिय कला है। लेकिन जब हम कला की बात करते हैं तो मन में एक अलग-सी चीज होती है। विज्ञान चेतन मन की उपज है लेकिन कला अतिचेतन के संस्कार से पैदा होती है। कलाकार जन्मजात होते हैं, इसीलिए कोई प्रयास करके रचना नहीं कर सकता। कलाकार तो जन्म लेता है। कलाएं अनेकविध रूपों में व्यक्त होती हैं। साहित्य, संगीत, नृत्य, पेंटिंग या इसी तरह की और भी रचनात्मक धाराएं एक कलाकार को व्यक्त होने का माध्यम देती हैं। हर कला अपनी दृष्टि रखती है, इसीलिए कलाकार भी दृष्टिसंपन्नता के बिना रच नहीं सकता। यह विकास अभ्यास और चिंतन की मांग करता है।

दृष्टिसंपन्न कलाकार साधारण आँखों से नहीं देखता है। अतिचोतन की सक्रियता उसे एक बड़ा आकाश सौंप देती है। वह आसानी से उन चीजों को भी देख लेता है, जो आम लोग रोज देखकर भी नहीं देख पाते हैं। लियोनार्दो द विंसी के बारे में जो विस्तृत जानकारियां अब हमें मिली हैं, उनसे साफ है कि सैकड़ों साल पूर्व उन्होंने पैराशूट और हेलीकाप्टर की चित्र कल्पना कर ली थी। उनकी तस्वीरें बिल्कुल वैसी ही हैं, जैसी आकृतियां विज्ञान ने तैयार कीं। शताब्दियों पूर्व रचे गये भारतीय साहित्य में विमान, अग्निबम और परमाणविक शक्ति के बारे में कल्पनाएं मिलती हैं, वायुमार्ग से आने-जाने की कथाएँ मिलती हैं। कलाकार भविष्यदर्शी ही नहीं भविष्यस्रष्टा भी होता है।वह समय में आगे खड़ा होकर रचता है।

ऐसा इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि वह अतिचेतन के संस्पर्श से संचालित होता है। यह अतिचेतन संपूर्ण काल और देश को लांघने की ताकत रखता है। यह नहीं समझना चाहिए कि इस नाते कलाकार समय से निरपेक्ष होकर रचता है। वह अपने समय में तो खड़ा रहता ही है, उसके आगे और पीछे भी देख सकता है। यही बात एक कलाकार को असाधारण बना देती है। कलाओं के बारे में कुछ सवालों पर बहसें भी होती आयीं हैं। मसलन कला कला के लिए या जीवन के लिए। यह एक गंभीर सवाल है। आज के वक्त में जिस कला की कोई उपयोगिता नहीं है, वह कदाचित मानवीय नहीं होगी। आदमी के सामने तमाम समस्याएँ हैं। किसी को भूख लगी है, कोई दर्द से तड़प रहा है, कोई बीमार है, कोई शासन की क्रूरता या उदासीनता से त्रस्त है। सुख-संपन्नता के हालात हों तो कला के सौंदर्य का आनंद उठाना संभव हो सकता है, पर एक विपन्न और दुखी समाज में कला की क्या भूमिका होनी चाहिए। निश्चित ही परिवर्तन। अब उस पुरानी सोच को कूड़ेदान में फेंकना होगा कि कला समाज का दर्पण है। अगर कला समाज में जो है, वह दिखाने भर का काम करती है तो अपनी जिम्मेदारी पूरा नहीं करती। आईने में किसी का मुंह टेढ़ा दिखता है तो वह उससे प्रसन्न कैसे हो सकता है। वह चाहेगा कि उसका चेहरा सुंदर हो जाये, बदल जाये। समाज के संदर्भ में कला को भी यह भूमिका निभानी होगी। उसे यथास्थिति के चित्रण की जगह बदलाव का हथियार बनना पड़ेगा, उसे जीवन को ज्यादा से ज्यादा सुंदर बनाने के लिए लड़ना होगा। दुष्यंत के शब्दों में---

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा जरूर
हर हथेली खून से तर और ज्यादा बेकरार।

3 टिप्‍पणियां:

  1. विज्ञान हो या कला .. दोनो का विकास या सुख पेट की क्षुधा शांत होने के बाद ही किया जा सकता है .. और आज की बडी आबादी पेट की क्षुधा शांत करने में ही लगी है .. विज्ञान या कला के विकास या सुख का अनुभव वो भला कैसे कर सकती है !!

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  2. bilkul sahi baat. sahitya ko samaz ka darpan hona chahiye lekin us aadarsh samaaz ka jiski kalpna yugon-yugon se hamaare chintak aur vicharak karte aaye hain.
    poori team ko pranaam.

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