गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

आदमी कुछ सीखता नहीं

एक खिले हुए फूल के पास से
जो भी गुजरेगा
हत्यारा या बलात्कारी
संत या बीतरागी
महंक सबके पास जायेगी
बिल्कुल एक जैसी
कोई भी पास आये
फूल नहीं रोकता
अपनी सौंदर्य-गंध को
वह सिर्फ महंकना जानता है

नदी के तट
सबके लिए खुले रहते हैं
जो चाहे, आये
किनारे बैठे या डुबकी लगाये
चोर हो, बेइमान हो या साधु
या जानवर ही क्यों न हो
नदी नहीं रोकती किसी को
अपने पास आने से
अपने भीतर उतरने से
वह सिर्फ बहती रहती है

पहाड़ खड़े रहते हैं
अपने समूचे सौंदर्य के साथ
जो भी चाहे
उन पर चढ़ सकता है,
उन्हें तोड़ सकता है
उनके भीतर
गहरी, अनजान गुफाओं में
घुस सकता है,
उन पर उगे पेड़ों से
तोड़ सकता है फल
जितना चाहे
उनकी चोटियों पर
जमी बर्फ को निहार सकता है
अपलक, निरंतर
पहाड़ सिर्फ खड़े रहते हैं

सूरज निकलता है
रोशनी फैलाता हुआ
घर-घर, आंगन-आंगन
वह रावण और विभीषण में
फर्क नहीं करता
गरीब और अमीर में
अंतर नहीं देखता
वह सिर्फ अंधेरे से लड़ता है
रोशनी फैलाता है

आदमी कुछ सीखता नहीं
न फूल से, न नदी से
न पहाड़ से, न सूरज से
इसीलिए वह पूरा
आदमी नहीं हो पाता

1 टिप्पणी:

  1. आदमी कुछ सीखता नहीं
    न फूल से, न नदी से
    न पहाड़ से, न सूरज से
    इसीलिए वह पूरा
    आदमी नहीं हो पाता

    प्रकृति से सिख ले तो उसमें इतना बनावटीपना तो नहीं रहेगा न !!

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