रविवार, 18 अप्रैल 2010

धधकतीं बस्तियां, जलते हुए लोग

यह किस्सा किसी किताब का या इतिहास के पन्नों का नहीं है। यह 21वीं सदी के उस भारत का है जिस पर देश के राजनेताओं, नौकरशाहों, श्रीमानों को नाज रहता है। घटना करीब दो साल पहले की है। बुंदेलखंड क्षेत्र के महोबा जनपद का एक गांव, जो लगातार चार साल से सूखे की मार झेल रहा था। उसी गांव में एक किसान परिवार रहता था। घर में पत्नी और दो-तीन बच्चे थे। खेत-बाड़ी काफी थी लेकिन लगातार सूखे के कारण फसलें चौपट हो गई थीं। ऊंचे दामों पर खरीदकर जो बीज बोये, वह भी बिना पानी के सूख चुके थे। कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा था। पहले खेती के लिए कर्ज लिया। बड़ी मुश्किल से कर्ज मिल पाता था। सरकारी अधिकारियों के दरवाजे चक्कर काटते-काटते उसकी चप्पलें टूट चुकी थीं। जितना मिलता था, उसका आधा तो उसे पाने में ही चुक जाता था। बाकी तपती धरती में खाक हो चुका था।

अब खाने के लिए कर्ज लेना पड़ रहा था। देनदारी बढ़ती जा रही थी। क्योंकि कर्ज वापस करने की सारी उम्मीदें सूख चुकी थी। इस कारण साहूकार अब खाने के नाम पर कर्ज देने को राजी नहीं थे। बैंकों की आरसी उसकी रात की नींद हराम किए हुए थी। उस दिन वह बहुत परेशान था। सुबह निकला था किसी काम की तलाश में पर नाउम्मीदी का गट्ठर लिए वह शाम को घर लौटा था। घर के हालात देख वह भूखे बच्चे की तरह बिलखने लगा था। लगातार कई दिनों की भूख से उसके बच्चे फूट-फूटकर रो रहे थे। पत्नी करीब-करीब अचेत सी एक टुटहे खटोले पर निढाल पड़ी थी। उसे अपने दुखों का दूर-दूर तक कोई अंत नहीं दिख रहा था। उसकी उम्मीदें हार गईं। हिम्मत जवाब दे गई। वह बच्चों के सोने का इंतजार करता रहा। उसी रात वह अंजुरीभर मिट्टी का तेल कहीं से मांग कर ले आया था। गांव के किसी अलंबरदार ने थोड़ी दया खाकर उसे दे दिया था, यह सोचकर कि घर में दीया जलाएगा।

वह एकाएक उठा और सोने के लिए बिछी टूटी चारपाई को झट से उठाया। एक मोटी सी रस्सी ली। चारपाई को कसकर अपनी कमर और पीठ से बांधा। रस्सी बहुत मजबूत बांधी ताकि खुलने की गुंजाइश न रहे। कमर से कपड़ा भी लपेट लिया था। मिट्टी के तेल को उठाया और कमर में बंधे कपड़े और चारपाई में डाल दिया। डालने का अंदाज ऐसा था कि पूरा कपड़ा मिट्टी के तेल से तर हो गया। माचिस उठाई और उसमें आग लगा दिया। एक जिंदा आदमी धूं-धूं कर जल रहा था। मौत बहुत बेरहम होती है। जलते समय उसे अपार पीड़ा हुई। चीखता-चिल्लाता वह बदहवाश भागने लगा। रात के सन्नाटे को चीरती उसकी चीख ने पूरे गांव को जगा दिया। मौत के इस रूप को देखकर सभी के रोंगटे खड़े हो गए। चाहते हुए भी कोई कुछ नहीं कर सकता था। अचेत पड़ी उसकी बीवी ने जैसे ही इस दृश्य को देखा,वह पागलों सी इधर-उधर भागने-चिल्लाने लगी। पर उसने मौत को इस कदर अपने शरीर से बांध रखा था कि कोई कुछ नहीं कर सका।

देखते ही देखते उसका शरीर राख में तब्दील हो गया। पूरे गांव की नींद उड़ गई थी। उसकी जिंदा लाश से रोज-रोज कर्ज का तकादा करने वाले गांव के साहूकारों में अजीब सा सन्नाटा था। आरसी जारी करने वाले बैंकों के मैनेजर भी सहम गए थे और चुप्पी साध ली थी। अखबारों में खबरें छप जाने के कारण प्रशासन हरकत में आया। पर वह यही साबित करने में लगा रहा कि वह भूख से नहीं मरा था। गृह कलह से तंग आकर उसने खुद को आग लगा ली थी। पर उस परिवार का कोई पैरोकार ही नहीं था। इसलिए थोड़े दिन की हलचल के बाद सब कुछ शांत हो चुका था। खबरिया चैनलों के एक संवाददाता हमारे मित्र हुआ करते हैं। वह इस बेईमान दुनिया में ईमान पर कायम रहने वाले दृष्टिसंपन्न व्यक्ति हैं। उन्होंने इस घटना का फालोअप कवर करने की ठानी। दिल्ली स्थित अपने मुख्यालय से बिना इजाजत लिए वह झांसी से महोबा चले गए। कैमरामैन को साथ लेकर बहुत मुश्किल से गांव पहुंचे। वहां के हालात देखकर उनका दिल दहल गया। वहां एक नहीं, कई घर कमोबेश ऐसे ही हालातों से होकर गुजर रहे थे। जिंदा राख हो चुके उस किसान के घर तो आज भी मौत भूख के रूप में डेरा जमाये हुए थी।

भूख और बीमारी से उसकी पत्नी भी मरणासन्न थी। दो बच्चे कई दिनों की बासी रोटी के टुकड़ों से जूझ रहे थे। उन टुकड़ों की खासियत यह थी कि उसे कुत्ते कहीं कूड़े के ढेर से उठा लाये थे। टुकड़े इतने कड़े हो चुके थे कि कुत्ते उसे हड्डियों की तरह चबाने की कोशिश कर रहे थे पर अनमने होकर छोड़ दे रहे थे। इंसान के वे बच्चे उन्हीं टुकड़ों पर अपनी जिंदगी की सांसें तलाश रहे थे। हमारे मित्र ने बहुत मन से डिस्पैच तैयार किया। विजुअल्स के साथ मुख्यालय भेजा। थोड़ी देर बाद एंकर ने जवाब दिया-यार मजा नहीं आया। मुख्य विजुअल तो है ही नहीं। यदि उसके जिंदा जलते हुए दृश्य मिल जाते तो अच्छी स्टोरी बनती। पर अब सब मामला ठंडा-ठंडा सा है। इससे टीआरपी नहीं बढ़ेगी। यह जवाब सुनकर मित्र ने मन ही मन फैसला लिया। कुछ महीनों बाद उन्होंने खबरिया चैनल से विदा ले ली।

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